शिवा पंचकरण

प्वाइंट फाइव फ्रंट ने विश्वसनीयता का मोल बढ़ा दिया है!

समसामयिक परिप्रेक्ष्य में जहां चारों ओर से सही-गलत सूचनाओं की बमबारी हो रही है, विश्वसनीयता का प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो उठा है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद यह तथ्य और भी स्पष्ट होकर सामने आया है। जानकारी कितनी सही है, उसके उद्गम के स्रोत क्या हैं और उसे किसने कहा या लिखा है, इसे जाने बिना आगे बढ़ाना या सही समझना जानकारी के युद्ध में शहीद होने जैसे ही है । वर्तमान संदर्भ में भारत का यही इकलौता छोर है, जहां लापरवाही स्पष्ट रूप से दिखती है।

किसी भी संघर्ष के अंत में ‘सत्यमेव जयते’ तो कह दिया जाता है,  किन्तु अगर सत्य को झूठ की अनगिनत परतों से ढक दिया जाए तो सत्य जीत कर भी कुछ एक लोगों तक सीमित रह जाता है। हाल ही का उदाहरण लें तो भारतीय सेना ने पाकिस्तान द्वारा प्रयोग किए जाने वाले चीनी रक्षा उपकरणों को पूरी तरह नष्ट कर दिया किन्तु विदेशी मीडिया, उसमें काम करने वाले पाकिस्तानी, चीनी और भारत विरोधी देशों के पत्रकारों ने भारत के विपरीत विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया जिस कारण भारत का पक्ष काफी लंबे समय तक विश्व पटल पर अच्छे से सामने ही नहीं आ पाया।

सरकार की ओर से प्रधानमंत्री का सेना के ‘आदमपुर बेस’ से ऑपरेशन सिंदूर के बाद संकेतात्मक तरीके से पाकिस्तान के दावों की धज्जियां उड़ाना हो या विपक्ष के नेताओं को विश्व के सामने भारत का पक्ष रखने के लिए भेजना, एक अच्छी शुरुआत तो है किन्तु अभी भी भारत, सरकारी तंत्र के अतिरिक्त, अपना पक्ष तक रखने के लिए बड़े, गंभीर और समर्पित प्लेटफ़ार्म नहीं बना पाया है, न ही चीन की तरह इस दिशा में अपने संसाधनों का प्रयोग करता हुआ दिखता है।

जिस प्रकार चीन अपने संसाधनों का प्रयोग कर भारत और विश्व  के कई देशों की सिविल सोसाइटी, पत्रकार, विश्वविद्यालयों, शोधकर्ताओं, और प्रभाव रखने बाले लोगों को चीन या चीन को फायदा देने वाले विमर्श  को लिखने और बढ़ाने पर पैसा खर्च करता है, वैसा कोई तंत्र होना तो दूर भारत में इस ओर अभी सही ढंग से बात भी नहीं शुरू हुई है।

इसके साथ ही विदेशी मीडिया में भारत की छवि बनाने वाले भारतीय मूल के पत्रकारों की भी कमी दिखती है। जो हैं भी वह पूरी तरह भारत विरोध के वायरस से ग्रसित प्रतीत होते हैं। भारत विरोध का यह वायरस दो स्तरों पर कार्य करता है, एक भारत के मनोबल को गिराने के लिए बड़े स्तर पर भ्रामक जानकारी को फैला कर, विश्व में भारत की छवि धूमिल करने का प्रयास करता है। दूसरा भारत के ही अंदर रह कर भारत को तोड़ने वाले विचार और व्यक्तियों को बढ़ावा देकर विखंडन  की     जमीन तैयार करता है। यही भारत के अंदर भारत को तोड़ने बाला प्वाइंट  फाइव फ्रंट है, जो कभी कॉमेडी का प्रयोग करता है कभी सिनेमा और साहित्य का, जिसके लिए भारत से अधिक ‘यूनिवर्सलिज्म’ वाला मार्क्सवादी यूटोपिया आवश्यक है। भारत और भारत जैसे कभी कॉलोनी रहे देश इसकी पूर्ति की प्रयोगशाला से अधिक कुछ नहीं होते। प्वाइंट फाइव फ्रंट का उद्देश्य किसी देश को तोड़ने से अधिक कुछ नहीं होता। विदेशी देश और विचार अपने लघु या दीर्घकालिक योजनाओं की पूर्ति के लिए इसका प्रयोग करते है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री का गरीब घर से होना राजनीति है जबकि बुरहान वानी हेडमास्टर का बेटा होने को  संवेदना पैदा करने के लिए लोगों के सामने जोर-शोर से रखा जाता है। बाद में एक ऐसी मनःस्थिति बना दी जाती है कि कई लोगों को यह लगने लगता है कि वह समाज से अलग या विपरीत सोच रहा है, इसलिए वह सही है। प्रभावित व्यक्ति के सही होने का इसके अतिरिक्त कोई ठोस तर्क नहीं होता। कुल मिलाकर, सकारात्मक बात को अनदेखा करने का हर संभव प्रयास करने के बाद भारत के पक्ष की हर स्थिति में केवल समस्या को ही चिह्नित करना, भारत विरोधी विमर्श बना कर केवल नकारात्मकता देखने और दिखने को तटस्थता का पर्याय बना दिया जाता है । ऐसे स्थिति में पहुँच कर व्यक्ति देश के विरोध करने को ही तटस्थ होना समझने लगता है। ऐसा व्यक्ति प्वाइंट फाइव फ्रंट का सबसे आसान शिकार बनता है । उसे थोड़े से नाम और लोभ से भ्रमित किया जा सकता है और इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके कारण लोगों की एक ऐसी सेना खड़ी होती है जो भारत विरोध को भारत का भला समझती है।

समकालीन सभ्यताओं का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन रहने वाले तीसरे दुनिया की संज्ञा से विभूषित देशों में ‘कोलोनियल’ मानसिकता का प्रभाव है, जिस कारण इन देशों से संबंध रखने वाले लोग अपनी संस्कृति को हीनता से देखने और विरोध करने को लिबरल होना समझते हैं। अमरीकी गृह युद्ध के समय में लोगों का मनोबल बढ़ाए रखने के लिए अखबारों का सहारा लेकर जीत को बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता था। इस प्रोपेगैंडा के अंतर्गत समाज और लोगों की एक राय बनाई जाती थी। जानकारी फैलाने वाला स्त्रोतों पर यदि शत्रु का वर्चस्व हो तो जीत होने के पश्चात भी भ्रम की स्थिति बनी रहती है।

ऐसा ही प्रयास ऑपरेशन सिंदूर की भारत विजय के पश्चात चीन और पाकिस्तान द्वारा एक बड़े स्तर पर किया गया। यह सुखद है कि भारत के अंदर इस विमर्श को पहली बार मुंह तोड़ जवाब दिया गया। प्वाइंट फाइव फ्रंट पर विजय के लिए वैश्विक स्तर पर एक लम्बा रास्ता तय करना बाकी है किन्तु ऑपरेशन सिंदूर के बाद समाज के स्तर पर एक सुगबुगाहट तो पैदा हो ही गई है। सरकारी प्रयास भी जल्द प्रारंभ हो तो देश की सुरक्षा और भी दृढ़ हो जाएगी।  

सांस्कृतिक परिचय का कोरोना-काल

होइहि सोइ जो राम रचि राखा।

कोई भी काल हो, कोई भी युग हो, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन अनादी काल तक जनमानस के लिए एक आदर्श के रूप में स्थापित रहेगा। युगों पूर्व महर्षि वाल्मीकि ने भगवान श्रीराम के जीवन की यात्रा का जो अमूल्य रत्न ‘रामायण’ विश्व को दिया, उसे रामानंद सागर जी ने पर्दे पर उतार कर जीवंत रूप दे दिया। रामानंद सागर जी ने जब पर्दे पर रामायण को उतारा था, तब उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि वह आमजन को एक बहुमूल्य रत्न देने जा रहे हैं। इतने वर्षों पश्चात् भी दूरदर्शन पर रामायण के पुनः प्रसारण की लोकप्रियता यह साबित करती है कि भारतीयों के मन से प्रभु श्रीराम को कोई हटा नहीं सकता। राम भारत के कण-कण में समाए हैं। गेम्स ऑफ थ्रोन्स देखने वाली आज की युवा पीढ़ी जब 'मंगल भवन अमंगल हारी' को सुन और गुनगुना रही है, तो समझा जा सकता है कि राम जैसा कोई नहीं है।
यह आश्चर्य ही है कि हम श्रीराम के जीवन को बचपन से सुनते आ रहे हैं। हम पूरी कहानी जानते हैं, लेकिन फिर भी जब पर्दे पर आज फिर से रामायण का प्रसारण होना शुरू हुआ तो हम उसी उत्साह और प्रेम से सब काम छोड़कर रामायण देखने में लग गए। हम भूल गए कि इस समय हम पर एक विषाणु का खतरा मंडरा रहा है. पर वो कहते हैं न राम से राम नाम बड़ा है, शायद उसी वजह से हम अपने पर आए दुःख-दर्द को भूल जाते हैं। उस दौर में और आज के दौर में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है। तब भी रामायण को देखने के लिए लोग सब काम छोड़ देते थे और आज भी लोग वैसा ही कर रहे हैं। उस समय भी कुछ लोगों को रामायण के प्रसारण से दिक्कत थी और इस जमाने में भी कुछ लोगों के पेट में यही दर्द उठ रहा है। लेकिन रामायण तब भी लोगों के हृदय में बसती थी और आज भी लोगों के हृदय में स्थान बना चुकी है। रामायण जिस दिन पुनः प्रसारित किया जाने लगा उस दिन कुछ क्रांतिकारी पत्रकारों ने हमेशा की तरह प्रश्न और विरोध के बाणों को धनुष पर चढ़ा लिया और पूछा कि इस दशकों पुराने धारावाहिक को कौन देखेगा? लेकिन रामायण ने बीते सालों के कई रिकॉर्ड ध्वस्त किए और कई नए कीर्तिमान भी स्थापित किए। रामायण आज दुनिया का सबसे अधिक देखा जाने वाला कार्यक्रम बन चुका है और आज की नई पीढ़ी के जीवन में उतर चुका है।
त्रेता युग में जन्मे भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान श्रीराम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं, भारत की अमूल्य सांस्कृतिक विरासत हैं। महात्मा गांधी के अनुसार राम एक सर्वव्यापी ईश्वरीय शक्ति का स्वरूप हैं। राम केवल हिन्दुओं के नहीं, अपितु सब धर्मों, पंथों के हैं। इसके बावजूद राम के देश में राम कब और कैसे काल्पनिक बनाए गए इसका अंदाजा शायद कोई हिन्दू नहीं लगा सकता। वर्षों का झूठ, प्रपंच और राम के जीवन पर ही प्रश्न चिन्ह लगाकर यह सारा षड्यंत्र भारत-विरोधी ताकतों द्वारा रचा गया है। इनका एकमात्र उद्देश्य भारत के लोगों को भारत के इतिहास से दूर करना है। ऐसा ही एक प्रपंच 2007 में कांग्रेस सरकार ने समुद्रम परियोजना पर काम करते हुए किया था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर करके कहा था कि राम, रामायण, सीता, हनुमान, वाल्मीकि आदि काल्पनिक किरदार हैं। अतः रामसेतु का कोई धार्मिक महत्व नहीं है। उसे तोड़ देना चाहिए। काफी विरोध झेलने के बाद सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा था, लेकिन लोग इस बात को याद रखे हुए थे। शायद इसीलिए जब रामायण दोबारा शुरू हुआ, तब सोशल मीडिया ने लिबरल्ज पर चुटकी लेते हुए लिखा की जिन-जिन को रामसेतु काल्पनिक लगता है, वे ध्यान से नल-नील को रामसेतु बनाते हुए देख लें।
आने वाली पीढ़ी को जानकर आश्चर्य होगा कि राम की ही भूमि भारत में राम जन्मभूमि तक विवादित विषय था। आप अन्य किसी पंथ, मजहब, धर्म के ईश्वर के जन्म या अस्तित्व को लेकर प्रश्न नहीं उठा सकते, लेकिन भारत में भारत के ही पूज्य श्रीराम की जन्मभूमि तक को भी विवादित बनाया गया। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। उच्चतम न्यायालय में कई सालों तक यह मुकदमा चला और न्यायालय में प्रभु श्रीराम के होने के प्रणाम भी प्रस्तुत किए गए। प्रभु श्रीराम के पूर्वज और वंशजों तक का इतिहास उच्चतम न्यायलय में पेश किया गया। आई सर्व के शोधकर्ताओं ने जब धार्मिक तिथियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चन्द्र कैलेंडर की तिथि को आधुनिक कैलेंडर की तारीख में बदला, तो वो यह जानकर हैरान हो गए कि सदियों से भारतवर्ष में रामलला का जन्मदिन बिलकुल सही तिथि पर मनाया जाता है। शोध संस्था के मुताबिक वाल्मीकि रामायण में जिक्र श्रीराम के जन्म के वक्त ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति सॉफ्टवेयर में मिलान करने पर जो दिन निकला वह था, चैत्र शुक्ल की नवमी जिसे हम राम नवमी के रूप में मनाते है। उच्चतम न्यायलय ने अपने फैसले में माना कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था। विवादित ढांचे की खुदाई के नीचे मंदिर के अवशेष मिलने के पश्चात् भी संदेह रहना और खम्भा तोड़ कर भगवान नरसिम्हा द्वारा प्रत्यक्ष दर्शन देने के बाद भी हिरण्यकश्यप का विश्वास न करना, यह दोनों कहानियां एक जैसी प्रतीत होती हैं। सच में इतिहास खुद को बार-बार दोहराता है।
कई वर्षों से हमारे सामने समाज को तोड़ने के लिए श्रीराम का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करने की कोशिश की गई जिसमें यह बताया गया कि राम और रामायण शुद्र विरोधी हैं। स्वयं को स्वयं ही ज्ञानी कहने वाले लिबरल्ज ने ना तो रामायण को अच्छे से पढ़ा और ना ही ध्यान से देखा या शायद राजनीति और समाज को तोड़ने में इतने खो गए कि जानबूझ कर हिन्दुओं में भेद पैदा करने के लिए तरह-तरह की बातों को गढ़ा गया। राम तो सबके हैं जाति, वर्ग, भेद से परे हैं। रामानंद सागर रामायण में बहुत अच्छे ढंग से श्रीराम के बाल्याकाल के मित्र निषाद राज से उनकी मित्रता का प्रसंग बताया गया है। वे दोनों साथ खाते हैं, खेलते हैं, एक ही गुरुकुल में पढ़ते हैं और राम के राज्याभिषेक के बाद उसी राजसभा में निषाद राज रहते हैं। ऐसे में आज तक श्रीराम के ऊपर शूद्रों से घृणा करने वाली भ्रामक बातें क्यों फैलाई गई होंगी। इससे उनका उद्देश्य साफ दिखता है, जामवंत, सुग्रीव, राक्षस राज विभिष्ण, जटायु, सम्पाती, शबरी राम के जीवन में प्रत्येक का आगमन हुआ, मित्रता हुई लेकिन श्रीराम ने एक बार भी मित्रता करने से पहले इनकी जाति नहीं पूछी। रावण ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बाद भी राक्षस कहलाया तो क्या उसका वध करने पर रामायण ब्राह्मण विरोधी हो गयी? फिर इतनी सारी भ्रामक बातें फैलाने का क्या उद्देश्य हो सकता है? लिबरल जमात के लिए वैसे तो रामायण एक काल्पनिक ग्रंथ है, लेकिन जैसे ही समाज तोड़ने की बात आती है, तो इनके लिए रामायण सच हो जाती है। रामायण की सुन्दरता छोड़कर अपने द्वारा रची गयी मनगढंत बातों पर विधवा-विलाप करने वालों पर रामानंद सागर द्वारा फिल्माई गई रामायण एक करारा जवाब है।

“कलयुग बैठा मार कुंडली जाऊं तो में कहां जाऊं, अब हर घर में रावण बैठा इतने राम कहां से लाऊं”

इस गीत की यह पंक्तियां आज के परिदृश्य में सही प्रतीत होती हैं। रावण को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना और इसके विपरीत श्रीराम की छवि धूमिल करने का प्रयास भी एक तबके द्वारा किया गया है। रावण शूर्पणखा के सम्मान के लिए नहीं, अपितु सीता मां की सुन्दरता का वृतांत सुनकर उन्हें हर लाया था। रावण को नलकुबेर का श्राप था कि वह किसी पराई स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध छू नहीं सकता। इसीलिए उसने सीता मां को केवल कैद में रखा था. यह रावण की मजबूरी थी, न कि महानता या मर्यादा। इसके विपरीत प्रभु श्रीराम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। राम एक आदर्श पुत्र और भाई ही नहीं, अपितु आदर्श पति भी हैं। लेकिन तथाकथित फेमिनिस्टों को राम केवल पुरुष प्रधानता के प्रतीक लगते है। वो भूल जाते हैं कि राम जानकी अलग नहीं, अपितु एक ही हैं। वनवास राम को था, लेकिन उनके साथ जाने का फैसला सीता का था, लक्ष्मण रेखा को पार करना भी सीता की अपनी इच्छा थी। उन्होंने एक भूखे साधू को अपने द्वार पर देख अपनी सुरक्षा की परवाह नहीं की और भोजन करवाने के लिए बाहर चली आईं। हनुमान जब लंका आते हैं तो सीता मां को साथ चलने के लिए कहते हैं लेकिन इस पर सीता कहती हैं कि उनकी जानकारी श्रीराम को दें। वो आएंगे और दुष्ट का संहार करके मुझे यहां से लेकर जाएंगे। पुरुष प्रधान समाज में एक नारी अपने सभी फैसले अपनी इच्छा से लेती है। यह उस विषैली सोच को जवाब है, जिसे लगता है कि अगर विश्व में नारी पर अत्याचार हुआ है, तो भारत का इतिहास कैसे सही हो सकता है। परन्तु वे भूल जाते हैं कि भारत भूमि में नारी को सबसे ऊपर के स्थान में रखा जाता है। नारी को कितनी स्वतंत्रता थी, यह कैकेई द्वारा मांगे गए दो वरदान सब साबित कर देते हैं। ये कुछ बातें आज के आधुनिक युग से प्रश्न करती हैं कि क्या आज के समाज में इतनी समझ है? सीता द्वारा अग्निपरीक्षा का रहस्य भी वाल्मीकि रामायण में वर्णित है और रामानंद सागर जी ने भी इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि किस प्रकार सीता के छाया रूप के साथ प्रभु ने लीला रची और रावण वध के पश्चात अग्नि से अपनी सीता को वापिस प्राप्त किया।
प्रजा के कुछ लोगों द्वारा सीता मां पर सवाल उठाने का सारा वृतांत जब श्रीराम के पास पहुंचता है, उसके बाद भी वह सारी बात अपने तक रखते हैं लेकिन जब सारी बात सीता को स्वयं पता चलती है तो सीता अपनी इच्छा से आयोध्या का त्याग करती है। तब भी श्रीराम मां सीता के साथ चलने को कहते हैं, लेकिन सीता श्रीराम को प्रजा के लिए उनके दायित्व की याद दिलवाती हैं।
आज के दौर में क्या इस प्रकार का निःस्वार्थ प्रेम संभव है? खुद राजा दशरथ की तीन रानियां होने के बाद भी श्रीराम ने न केवल एक ही नारी से विवाह किया, अपितु पूरा जीवन उन्हीं से प्रेम करते हुए किसी पराई स्त्री की ओर नहीं देखा। ऐसा निर्मल चरित्र आज की भोग-विलास भरी दुनिया के लिए आदर्श भी है, लेकिन समाज किस दिशा में जा रहा है यह भी सोचने के लिए विवश करता है। शायद इसी वजह से आज के लिबरल्ज को सबसे ज्यादा नफरत किसी भगवान से है, तो वह हैं प्रभु श्रीराम। श्रीराम का पूरा जीवन संघर्षों से भरा पड़ा है। शायद इसीलिए राम मनोहर लोहिया भारत मां से शिव का मष्तिष्क, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म व वचन मांगते हैं। राम एक आम मनुष्य की भांति है कोई चमत्कार नहीं। एक आम इन्सान की तरह संघर्ष करते हुए पूरा जीवन, जिसमें अनेको मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसीलिए भारतीय समाज के लिए सबसे बड़े आदर्श का प्रतीक श्रीराम हैं। यही बात कुछ लोगों को पच नहीं पाती। राम का जीवन कष्टों का मार्ग है। इस पथ पर मर्यादा है। आप चाहकर भी सीमा नहीं लांघ सकते। यही चरित्र राम को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम बना देता है। राजा का कर्तव्य, शिष्य का कर्तव्य, माता-पिता के प्रति कर्तव्य, पत्नी के प्रति कर्तव्य एक आदर्श जीवन जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एक सभ्य समाज राम राज्य की गांधीजी द्वारा की गई कल्पना को अगर हम साकार करते हैं तो बहुत से लोगों के राजनीतिक राज्य खत्म हो जाएंगे।
सब सामने था, परन्तु फिर भी एक षड्यंत्र के तहत श्रीराम की छवि को भारत के आमजन के सामने धूमिल करने का प्रयास किया गया। रामानंद सागर जी ने जिस प्रकार रामायण को पर्दे पर उतारा, शायद आने बाली कई पीढ़ियां इससे ना केवल अपने आराध्य को जान पाएंगी, अपितु फिल्म जगत से जुड़े हुए लोग भी भावनाओं को कैसे पर्दे पर दिखाया जाता है, ये भी सीख पाएंगे। जिन लोगों के मन में रामायण को लेकर प्रश्न थे शायद रामायण के पुनः प्रसारण के बाद उन प्रश्नों के उत्तर उन्हें मिल गये होंगे। मुझे तो मिल गए और आपको?