आवरण कथा

मूवी माफिया के कब्जे में ‘भारतीय मन’

नया भारत और स्वच्छ भारत बनाने का लक्ष्य बॉलीवुड को स्वच्छ और नया बनाए बगैर प्राप्त नहीं किया जा सकता। असल में बॉलीवुड इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है। बॉलीवुड को स्वच्छ करना जरूरी है, तभी नया भारत बन सकता है। एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में अभिनेत्री कंगना रणौत ने बॉलीवुड की ताकत और उसमें पसरी गंदगी की तरफ संकेत करते हुए यह टिप्पणी की थी।
कई लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है। भला ‘नया भारत’ और ‘स्वच्छ भारत’ का मुंबइया सिनेमा से क्या सम्बंध हो सकता है? हमेशा ‘महत्वपूर्ण मुद्दों’ पर चर्चा करने के शौकीन कई बुद्धिजीवी पिछले दो महीनों से सोशल-मीडिया पर इस बात के लिए आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं कि सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या-हत्या प्रकरण को कुछ चैनल इतनी कवरेज क्यों दे रहे हैं?  उनके लिए फिल्म और उससे जुड़े मुद्दों पर चर्चा करना वाहियात मुद्दे पर चर्चा करने जैसा है। 
ये वही लोग हैं जो अन्य जगहों पर नई पीढ़ी में बढ़ती नशे की लत पर रोना रोते हैं। परिवार टूटने, सम्बंधों के बिखरने पर नोस्टैल्जिक होकर व्याख्यान देते हैं। सामाजिक-सरोकारों से युवाओं की बढ़ती दूरी पर कोसते हैं। लेकिन तनिक ठहरकर, इस बात का विश्लेषण करने की जहमत नहीं उठाते कि ऐसा क्यों हो रहा है? जिस तथाकथित नई पीढ़ी के बिगड़ने की बातें हर जगह होती हैं, वह नई चीजें सीख कहां से रही है? उसे आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता के नाम पर जो परोस जा रहा है, उसे वह स्वीकार कर रही है। प्रश्न यह है कि वह परोसने वाला कौन है? कौन है जो भारत की नई पीढ़ी के मन और स्वप्न को गढ़ रहा है? कौन भारतीय मन पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है? ऐसा कौन सा प्लेटफार्म है, जो भारतीय मन और उसके स्वप्नों को निर्धारित कर रहा है?
जनसामान्य और विशेषज्ञ अलग-अलग शब्दावली और लहजे में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नई पीढ़ी पर सबसे अधिक प्रभाव फिल्मी दुनिया का है, बॉलीवुड का है। समाजीकरण के अन्य माध्यमों का प्रभाव फिल्मी दुनिया के सामने हल्का पड़ता जा रहा है। खान-पान, रहन-सहन, जीवन के लक्ष्य, व्यवहार के मुहावरे सभी वहीं से तो आ रहे हैं। जिसके हाथों में देश की पूरी पीढ़ी हो, उस पर चर्चा करना निरर्थक विषय पर चर्चा करना कैसे हो सकता है? कंगना रणौत की टिप्पणी को इस संदर्भ में रखकर समझने की कोशिश करें तो उसके अर्थ आसानी से खुल जाते हैं।
इससे भी बड़ी बात यह कि जिस प्लेटफार्म और इंडस्ट्री के पास इतनी ताकत है, जो अपनी सम्मोहन-शक्ति के कारण सांस्कृतिक-अभिकेन्द्र बन गया है, उसको पारदर्शी, स्वच्छ और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत बनाने की जिम्मेदारी हमारी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर होनी चाहिए। युवाओं के सबसे बड़े रोल-मॉडल संवैधानिक और राष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार काम करें, यह आवश्यक हो जाता है। इस दिशा में कार्य करना, उसके लिए परिवेश बनाना, पसरे हुए सड़ांध को दूर करने के लिए मुखर होना एक महत्तर राष्ट्रीय कर्तव्य बन जाता है। इसलिए बॉलीवुड पर बहस बहुत जरूरी हो जाती है और उसकी पारदर्शिता के लिए उठने वाली किसी भी आवाज का महत्व बढ़ जाता है। 
कंगना की ही शब्दावली का इस्तेमाल करें तो बॉलीवुड कोई इंडस्ट्री नहीं बल्कि एक रैकेट की तरह कार्य करता है। हिन्दूफोबिक और राष्ट्रविरोधी मानसिकता से चलने वाले माफिया-गिरोह की तरह है। यदि बॉलीवुड के इतिहास पर नजर डालें तो इस तथ्य को आसानी से समझा जा सकता है। 
भारत में फिल्मों की शुरुआत लगभग एक सदी पहले दादा साहेब फाल्के से होती है। ऐतिहासिक साक्ष्य यह साबित करते हैं कि फिल्मी दुनिया में उनके प्रवेश का कारण भारतीय सभ्यता के उज्जवल पक्ष को लोगों के सामने रखना था। उन्हें मिशनरियों द्वारा दिखाई जा रही फिल्म ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ को देखकर पीड़ा हुई थी कि वे फिल्मी माध्यम का उपयोग मतांतरण के लिए कर रहे हैं। इसके बाद वह संकल्प लेते हैं कि फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीखकर भारतीय कथानक और मूल्यों को आगे बढ़ाएंगे। फिल्म-निर्माण की बारीकियों के सीखने की उनके संघर्ष की एक अलग कहानी है। लेकिन उनकी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बताती है कि फिल्म निमार्ण में उनकी प्राथमिकताएं क्या थीं।
स्वतंत्रता के समय और उसके दो दशक बाद तक भारत का फिल्म जगत अपने सांस्कृतिक मूल्यों, देशज मान्यताओं और देशभक्ति से ओतप्रोत था। लेकिन इसी बीच बॉलीवुड में दो-पटकथा लेखकों सलीम-जावेद का प्रवेश होता है। और इसी के साथ शुरू होता है संवाद और कहानियों में भारतीय-समाज को वैचारिक और सभ्यतागत पूर्वाग्रहों के साथ पेश करने का सिलसिला। शोले, जंजीर, अंदाज, डॉन जैसी फिल्मों में इस पूर्वाग्रह को इतनी कुशलता के साथ गूंथा गया है कि दर्शक आसानी से इसको पकड़ नहीं पाता। समाज के कुछ वर्गों को बुरा और कुछ वर्गों को अच्छा दिखाने की परम्परा शुरु हुई। और यहीं से शुरु होता है अपनी परम्पराओं, सामाजिक-सरंचना और भारतीय यथार्थ का मखौल उड़ाने का सिलसिला, जो अब खुल्लम-खुल्ला देश का मखौल उड़ाने तक पहुंच गया है। उस समय गढ़ी गई ‘एंग्री यंगमैन’ की छवि ने भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को किस तरह प्रभावित किया, इसका विश्लेष्ण किया जाए तो वैचारिक आग्रहों को आसानी से पकड़ा जा सकता है।
नब्बे के दशक में बॉलीवुड तेजी से माफिया के शिकंजे में फंसता गया। फिल्मी-दुनिया को इंडस्ट्री का दर्जा देकर इसे रोकने की कोशिश की गई, लेकिन माफिया, ड्रग-रैकेट की घुसपैठ बॉलीवुड में इस कदर हो चुकी थी कि वह उससे ही संचालित होने लगा। मुम्बई बम धमाकों के बाद जब यहां का माफिया कराची पहुंचा तो उसके जरिए आईएसआई को बॉलीवुड में घुसपैठ करने का मौका मिल गया। उसके बाद तो जो काम संवादों में गूंथकर होता था, वह खुल्लमखुल्ला होने लगा। मिशन-कश्मीर, फना, माय नेम इज खान जैसी फिल्मों का पूरा कथानक ही इस तरह से बुना गया, जिससे पाकिस्तान का दृष्टिकोण साबित होता है। 
इसी दौर में दिव्या भारती की रहस्यमय स्थितियों में मौत होती है। गुलशन-कुमार ने टी-सीरीज के जरिए देश में भक्ति-संगीत की एक नई गंगा बहाने की कोशिश की थी। पूरे देश ने उनके प्रयासों को हाथों-हाथ लिया था। बाद में उनकी नृशंस हत्या कर दी गई। उसके बाद पिछले दो-दशकों से इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। आज भी भक्ति और देशभक्ति के लिए लोगों को दशकों पूर्व के गानों से ही काम चलाना पड़ता है। आशुतोष राणा जैसे फिल्मकारों, जिनकी भाषा और दर्शन को लेकर एक स्पष्ट झुकाव था, उनके कैरियर को तबाह कर दिया गया। विवेक ओबेरॉय जैसों का कैरियर व्यक्तिगत कारणों से तबाह कर देना हाल की ही घटना है।
कंटेट के जरिए भारतीय आस्था के प्रतीकों को किस तरह से नुकसान पहुचाया जा सकता है, इसके हालिया उदाहरणों ने लोगों को सोचने पर विवश कर दिया है। पीके में भगवान शिव और गलियों की रामलीला में भगवान राम का मजाक तो खुले आम दिखता है। बजरंगी भाईजान में बंदरों के सामने झुकने या शाकाहारी खाने का जिस तरह मजाक उडाया गया है, वह बहुत बारीकी से देखने पर ही समझ में आता है। दंगल में खास मजहब के बेचने वाले मुर्गों का खाना, अंततः मांसाहार बनाने की अनभिज्ञता और कुश्ती के फाइनल के दिन प्रसाद के रूप में मिट्टी देने की घटना के जरिए किस तरह सभ्यतागत एजेंडे को आगे बढाया गया है, वह आसानी से समझ में आता है।
कंगना रणौत ने क्योंकि इस इंडस्ट्री में काम किया है, इसलिए उनके शब्दों में बॉलीवुड में काम कर रही देश-विरोधी और सभ्यता-विरोधी संरचना को समझना आवश्यक है। कंगना के अनुसार यह पूरा ढ़ांचा तीन स्तरों पर काम करता है। पहले स्तर पर महेश भट्ट जैसे लोग हैं, जो दिखने में कूल और आधुनिक लगते हैं, लेकिन फिल्में जेहादी बनाते हैं। दूसरे स्तर पर जावेद-अख्तर जैसे लोग हैं, जो स्वयं को नास्तिक बताते हैं, लेकिन उनका पूरा ध्यान इस बात पर होता है कि कौन लोग इस्लामिक सिद्धांतों के अनुसार काम करते है और कौन उसके विरोध में काम करते हैं। इसके आधार पर किसी अभिनेता को आगे बढ़ाने और रोकने की रणनीति बनाते हैं। तीसरे स्तर पर करण जौहर जैसे लोग हैं जो फिल्मों के कंटेंट को इस तरह से मोड़ते हैं, जिससे अपना देश, अपनी परम्पराएं ही खलनायक दिखने लगती हैं। गुंजन सक्सेना फिल्म में कपोल-कल्पित पितृसत्ता को दिखाने की बात हो या केसरी में सैनिकों द्वारा मस्जिद बनाने की बात, इसी तथ्य को साबित करते हैं, जबकि सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत थी। 
मन पर कब्जा किसी देश के लिए सबसे भयावह स्थिति होती है। इसको लम्बे समय बरकरार रखने की इजाजत दे दी जाए तो गुलामी में आजादी और आजादी में गुलामी का भ्रम पैदा होने लगता है। इसलिए मूवी-माफिया के शिकंजे को तोड़ना जरूरी हो जाता है। यह स्थापित तथ्य है कि मूवी-माफिया की जान ड्रग में बसती है, इसके जरिए वह जहां बॉलीवुड के तंत्र को लचर बनाता है, अभिनेता-अभिनेत्रियों की कमजोरी का लाभ उठाने की स्थिति में पहुंचता है, वहीं उसे बॉलीवुड में निवेश लायक धन भी मिलता है। ड्रग के जरिए उगाही और फिल्मों में निवेश, यह एक सेट फार्मूला है। 
इस स्थिति से निकलने का एक सहज और सरल उपाय अपने अनुभवों के आधार पर कंगना रणौत ने सुझाया है, वह यह है कि सभी अभिनेता, अभिनेत्री, फिल्म-डायरेक्टरर्स का किसी फिल्म शुरू करने से पहले इस बात को जानने के लिए ब्लड सैंपल लिया जाना चाहिए कि वह हार्ड ड्रग कनज्यूम करते हैं या नहीं और दूसरा उनसे यह हलफनामा लिया जाना चाहिए कि वह देश-विरोधी कंटेट औैर मानसिकता को आगे नहीं बढ़ाएंगे। जब खेलों तक में डोप टेस्ट किए जाते हैं तो पूरे देश की मानसिकता को प्रभावित करने वाले लोगों का ब्लड टेस्ट,डोप-टेस्ट क्यों नहीं होना चाहिए। आखिर किसी को भी अपने बच्चों का रोल-मॉडल बनाने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। #drugtestforcelebrities का अभियान समय और देश की मांग है।
 

समय की मांग है सांस्कृतिक-स्वतंत्रता का स्वदेशी-सूचनातंत्र

भारत केन्द्रित भारत-दृष्टि और भारत केन्द्रित विश्व-दृष्टि वर्तमान बौद्धिक-पारिस्थितिकी की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गयी है। लेकिन ऐसी बौद्धिक पारिस्थितिकी निर्मित करने की जब भी कोशिश होती है, तो प्रायः सारी बहस भारत केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था तक ही सीमित कर दी जाती है, भारत-केन्द्रित सूचना व्यवस्था का पक्ष पूरी तरह उपेक्षित ही रह जाता है। वास्तविकता यह है कि जिस तरह के सूचना-सघन समाज में हम जी रहे हैं, उसमें शिक्षा क्षेत्र के पहल-प्रयोग, शोध-अन्वेषण भी बौद्धिक परिवेश और जनमानस का हिस्सा तभी बन सकते हैं, जब उसे सूचना तंत्र का सहयोग प्राप्त हो।
भारत-केन्द्रित सूचना-तंत्र के अभाव के कारण ही शिक्षा-क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण शोध हो चुके हैं, या हो रहे है, उनसे सामान्य भारतीय की तो दूर, अकादमिक व्यक्ति का भी परिचय नहीं है। वासुदेवशरण अग्रवाल की पुस्तक ’पाणिनीकालीन भारतवर्ष’ हो, या हजारी प्रसाद द्विवेदी की ’नाथ-सम्प्रदाय’, दोनों शोध की दृष्टि से प्रतिमान रचने वाली किताबें हैं, लेकिन बौद्धिक विमर्श से दोनों गायब हैं। इसका कारण शिक्षा-तंत्र की उपेक्षा के साथ सूचना-तंत्र में इनको स्थान न मिलना भी है। कमजोर सूचना-तंत्र के कारण ही ऐसे शोध-ग्रंथों के बावजूद हिन्दी पर स्तरीय-शोध के अभाव की तोहमत अलग से मढ़ दी जाती है। 
पहले सूचनाओं का प्रमुख स्रोत शिक्षा-व्यवस्था थी। अब भी सूचनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाने में उसकी एक निश्चित भूमिका बनी हुई है। इसके साथ एक हकीकत यह भी है कि पिछले तीस वर्ष में जो जीवनशैली पनपी है, उसमें शिक्षा-व्यवस्था के समानांतर ही स्थान सूचना-व्यवस्था ने भी स्थान बना लिया है। नई पीढ़ी जितना समय शिक्षण-संस्थानों में खर्च करती है, लगभग उतना ही समय सोशल-मीडिया, फिल्म, डाक्यूमेंट्री या सूचना के अन्य प्लेटफार्म पर भी खर्च कर रही है। इसलिए उसमें शिक्षा-व्यवस्था से प्राप्त सूचना को सूचना-तंत्र से प्राप्त सूचनाओं की कसौटी पर कसने और सूचना-तंत्र से प्राप्त सूचनाओं को किताबों से प्राप्त सूचनाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति पनपी है। यदि आज यह कहा जाने लगा है कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की सूचनाएं अन्य यूनिवर्सिटी की सूचनाओं पर भारी पड़ रही हैं, तो इसे पूरी तरह से मजाक में नहीं टाला जा सकता। इस कथन को शिक्षा-तंत्र और सूचना-तंत्र के उभरते सम्बंधों के परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की कोशिश होनी चाहिए।
भारत-केन्द्रित बौद्धिक पारिस्थतिकी रचने और उसके माध्यम से सांस्कृतिक-स्वतंत्रता प्राप्त करने के जिस लक्ष्य की चर्चा होती है, उसकी पूर्वशर्त भारत केन्द्रित सूचना-तंत्र का निर्माण है। भारतीय दृष्टि से संचालित संचार-व्यवस्था, सूचना-प्रवाह का निर्माण शैक्षणिक-परिवेश के विऔपनिवेशीकरण(डिकोलोनाइजेशन)के लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि नए देश-काल, विश्व-व्यवस्था में भारत और भारतीयता को प्रत्येक मोर्चे पर स्थापित करने के लिए भी आवश्यक है। भारत के विश्व-महाशक्ति बनने का रास्ता उसके सूचना-महाशक्ति बनने से होकर ही गुजरता है और ऐसा होने के बडे़ स्पष्ट कारण हैं।
भारत अभी तक अपनी जीवंत सांस्कृतिक विरासत का उपयोग शेष दुनिया से सम्बंध बनाने और उनके बीच स्थापित करने के लिए एक सीमा से अधिक नहीं कर सका है। विशेषज्ञ समय-समय पर यह राय देते रहे हैं कि सांस्कृतिक-कूटनीति का उपयोग कर भारत स्वयं को आसानी से विश्व-पटल पर स्थापित कर सकता है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में तो भारत का सांस्कृतिक प्रभाव अब तक बना हुआ है, लेकिन वहां भारत अपनी सशक्त-उपस्थिति दर्ज कराने में असफल रहा है, तो उसका कारण यही है कि उसके पास सूचना का वैश्विक ढांचा नहीं है। 
वैश्विक सूचनातंत्र के अभाव के कारण ही भारत दक्षिण-पूर्व एशिया में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के पाठ-भेद से उत्पन्न दूरी अथवा पूरी दुनिया में जातिवाद को नस्लवाद के समान बताकर होने वाले बौद्धिक आक्रमणों के समुचित प्रतिकार के स्थान पर रक्षात्मक हो जाता है, स्पष्टीकरण देने लगता है। हद तो तब हो जाती है जब पाकिस्तान जैसे इस्लामिक गणतंत्र और चीन जैसे लौह-पर्दे की नीति से संचालित देश भी भारत को खुलेपन, सहिष्णुता पर उपदेश देकर चले जाते हैं, और सूचना के क्षेत्र में कमजोर स्थिति के कारण हम सफाई देने की मुद्रा अपना लेते हैं। 5 अगस्त 2019 के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कई बार यह बयान दिया कि भारत गांधी-नेहरू के आदर्शों से दूर जा रहा है, नया भारत असहिष्णु है। इस नैरेशन को आगे बढ़ाने वाले आलेख दुनिया भर के अखबारों में प्रकाशित हुए। भारत पाकिस्तान प्रेरित इस विमर्श का ठीक ढंग से उत्तर नहीं दे सका। साधारण सा तर्क दिया जा सकता था कि गांधी और नेहरू को 70 साल पहले पूरी तरह से दरकिनार कर ही तो पाकिस्तान की नींव रखी गई थी। अब जब भारत अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप निर्णय रहा है, तो पाकिस्तान किस मुंह से गांधी-नेहरू की दुहाई दे रहा है। भारत को पांथिक-सहिष्णुता पर पग-पग उपदेश देने वाले देश के पूर्व-विदेशमंत्री के ऊपर केवल इस कारण ईशनिंदा का मामला दर्ज हो जाता है कि उसने सभी पंथों को समान बता दिया था। लेकिन इसे राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के वास्तविक चरित्र की झलक के रूप में पेश करने में  भारत विफल रहा। इसका एकमात्र कारण सूचना-प्रवाह में हमारी कमजोर वैश्विक स्थिति ही रही है। एक कठुआ-प्रकरण के कारण हिन्दुस्तान को रेपिस्तान बताने के अभियान को यदि वैश्विक स्तर पर स्वीकृति मिल जाती है, तो इसका भी बड़ा कारण सूचना के मोर्चे पर भारत की कमजोर-प्रतिक्रिया ही थी। 
स्पष्ट है कि भारत की छवि को लगातार नुकसान पहुंचाने वाले, उसे पिछड़ा और अमानवीय साबित करने वाले मीडिया अभियानों का उत्तर मजबूत सूचना-व्यवस्था के जरिए ही दिया जा सकता है। भारत की वैश्विक स्वीकृति उसकी सशक्त सूचना अधोसंरचना पर ही निर्भर करेगी। अभी तो स्थिति यह है कि देश में अपवाद स्वरूप घट रही कुछ अप्रिय घटनाओं को भारत के चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें सूचना-क्षेत्र में लगातार हो रही हैं और भारतीय सूचना-तंत्र का राडार प्रायः इन खबरों का नोटिस भी नहीं ले पाता, सही प्लेटफार्म पर सटीक उत्तर देना तो बहुत दूर की बात है।
इसी प्रक्रिया का दूसरा पक्ष है अपनी परम्परा, विरासत, दृष्टिकोण और दर्शन के सकारात्मक पक्ष से पूरी दुनिया को परिचित कराना। योग की वैश्विक स्वीकृति के बाद भारत की वैश्विक-स्तर पर एकतरह से रीब्रांडिंग हुई है। लेकिन योग की दस्तक और प्रामाणिकता और आवश्यकता इतनी अधिक थी कि उसकी स्थापना होनी ही थी, फिर भी देश और विदेश में लम्बे समय तक सूचना के अवरोध खड़े किए ही गए। योग के अतिरिक्त कई ऐसी विधाएं अब भी हैं, जो दुनिया में भारत की पहचान बना सकती हैं। कलरीपयट्टू जैसी भारतीय मार्शल आर्ट, शास्त्रीय संगीत, भारतीय वेश-भूषा, पर्यावरण-मित्र जीवनशैली आदि ऐसे क्षेत्र है, जिन्हें यदि ठीक ढंग से विश्व-बिरादरी के समक्ष लाया जाये तो उनको स्वीकार किए जाने में समय नहीं लगेगा। इनसे भारत की दूसरे देशों को प्रभावित करने की साफ्ट-पॉवर बहुत बढ़ जाएगी। कारण साफ है, इन विधाओं का अपना विशिष्ट भारतीय दर्शन भी है, जो इनके साथ पूरी दुनिया की यात्रा करेगा और स्वीकृत भी होगा। इनकी स्वीकृति के लिए आवश्यकता केवल मजबूत और विश्वसनीय सूचना-संरचना की है। 
स्वदेशी सूचना-तंत्र की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि सूचना-प्रवाह और उससे सम्बंधित डेटा देश की सुरक्षा और सम्प्रभुता में निर्णायक स्थान प्राप्त कर चुके हैं। युद्धभूमि अब जल, थल, नभ के साथ वर्चुअल दुनिया तक विस्तृत हो चुकी है। शत्रु अब वर्दी-रहित है, और नागरिक-क्षेत्रों में बैठकर सूचना, वीडियो के जरिए हमलों को अंजाम दे सकता है। वर्तमान युद्ध में केवल सशस्त्र सैनिक नहीं, बल्कि निशस्त्र आम नागरिक भी योद्धा की भूमिका में आ चुके हैं।
सोशल-मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर बने अकाउंट और उन पर हो रही गतिविधियां महत्वपूर्ण सूचनाएं शत्रुओं तक पहुंचा सकती हैं। मसलन, हाल में चीन अपने सैनिकों को उचित सम्मान देने के प्रश्न पर केवल इसलिए दबाव में आ गया क्योंकि उसके ही सोशल-मीडिया प्लेटफार्म पर एक ऐसा वीडियो आ गया, जिसमें एक चीनी सैनिक के शव को उचित सम्मान न देने पर उसके परिजन असंतोष व्यक्त कर रहे थे। इसी तरह, 2015 में आईएसआईएस के एक ठिकाने को तबाह करने में अमेरिकी सेना को इसलिए सफलता मिली थी क्योंकि उसके हाथ एक आतंकी कमांडर की सेल्फी लग गई थी। आईएसआईएस के एक कमांडर ने अपने किसी ठिकाने से फेसबुक पर एक सेल्फी पोस्ट की, अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने सेल्फी के लोकशन की छानबीन की और 22 घंटे बाद वहां बमबारी कर ठिकाने को तहस-नहस कर दिया गया। सोशल-मीडिया पर जनरेट हो रहे डेटा की सुरक्षा सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है और यह कार्य स्वदेशी सूचना-तंत्र का विकास करके ही संभव है। 
ऐसे और भी कारण है, जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य से लैस स्वदेशी सूचना-तंत्र को वर्तमान भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता बना देते हैं। एक राष्ट्र और सभ्यता के रूप में सूचना के वैश्विक और विश्वसनीय ब्रांड खडे़ करना सामूहिक-जिम्मेदारी है। यह सांस्कृतिक-स्वतंत्रता की मूलभूत शर्त है। यदि अगले कुछ वर्षों में यह कार्य नहीं होता तो सबसे निर्णायक मोर्चे पर पिछड़ने के लिए हम अभिशप्त होंगे। 
 

मीडिया ’मेड इन चाइना’

22 जून को एक लाइव टीवी डिबेट के दौरान सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद ने भारतीय सूचना-तंत्र पर कटाक्ष करते हुए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उनके अनुसार सेना और सरकार के आधिकारिक बयान के बारे में भारतीय मीडिया का एक वर्ग संदेह पैदा करना चाहता है। इस वर्ग की तरफ से ऐसे अपुष्ट तथ्य सामने रखे जा रहे हैं, जिनसे राष्ट्रीय हित को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। पूर्व भारतीय सैन्य अधिकारी ने सवाल उठाते हुए कहा कि देश के बयान को सच न मानकर जिन अपुष्ट तथ्यों और प्रायोजित प्रश्नों को सच के रूप में परोसा जा रहा है, उनका सोर्स पता किया जाना चाहिए। यदि स्रोत की पहचान हो जाए तो भारतीय मीडिया के उस वर्ग की मानसिकता और हितों की आसानी से पहचान की जा सकती है।

स्पष्टतः लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद ग्लोबल टाइम्स के प्रोपेगेंडा को भारत के आधिकारिक बयान पर तरजीह देने वाले मीडिया के एक वर्ग की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे थे। उन्होंने कहा कि युद्ध जैसी स्थिति में शत्रु के बयान को अधिक वजन देकर भारतीय मीडिया का एक वर्ग क्या साबित करना चाहता है? वह भारतीय मीडिया के उस वर्ग के बारे में अपनी खीझ व्यक्त कर रहे थे, जो 16 जून के बाद ग्लोबल टाइम्स के दृष्टिकोण,तथ्य और बयानों को अंतिम सच मानकर ज्यों का त्यों स्वीकार रहा था।

ऐसी ही एक बहस में हायब्रिड वारफेयर पर विशेषज्ञता रखने वाले लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन ने राय दी कि गलवान-संघर्ष ने चीन के उस मनोवैज्ञानिक लाभ को ध्वस्त कर दिया है, जो उसने 1962 के युद्ध के बाद हासिल किया था। यह साबित हो गया है कि जमीन पर चीन, भारतीय सेना से बहुत कमजोर है। गलवान का सैन्य महत्व तो है ही, उससे अधिक महत्व मनोवैज्ञानिक है।

इन दोनों टिप्पणियों को केन्द्र में रखकर 16 जून के बाद भारतीय मीडिया के व्यवहार को देखें तो कोई बहुत अच्छी तस्वीर नहीं उभरती। निर्णायक मौकों पर अपने देश, सेना, सरकार को लेकर वह अजीब तरह के हीनताबोध का प्रदर्शन करती है। शल्य वृत्ति उसके भीतर बहुत गहरे तक धंसी हुई है।

भारतीय मीडिया के एक वर्ग की यह प्रवृत्ति हायब्रिड वारफेयर, या फिफ्थ जनरेशन वारफेयर के वर्तमान दौर में देशहित को गंभीर नुकसान पहुंचा रही है। युद्ध की नई शैली सीमा और सैनिकों तक सीमित नहीं है। सूचना-तंत्र और सूचना-प्रवाह इसका अहम हिस्सा हो चुके हैं। इस लिहाज से पत्रकार देश की सुरक्षा की अहम कड़ी बन चुके हैं। सोशल-मीडिया के आने के बाद तो प्रत्येक नागरिक, उसकी सोच और अभिव्यक्ति की भी युद्ध में निश्चित भूमिका तय हो जाती है।

ऐसे में पेशेवर मीडिया से सम्बंध रखने वाले लोग ’मेड इन चाइना वर्जन’ को अधिक तरजीह देकर देश की सुरक्षा और सम्प्रभुता के साथ खिलवाड़ क्यों करना चाहते हैं? इसका रहस्यभेदन करना राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ खुले एक महत्वपूर्ण मोर्चे को फतह करने जैसा है। आखिर क्या कारण है कि अपने ऊल-जलूल शीर्षकों के लिए पहचान बना चुका अंग्रेजी अखबार भारत-चीन संघर्ष के बाद बड़े निर्लज्जतापूर्वक यह शीर्षक लगाता है कि उन्होंने हमें घर में घुसकर मारा। इस शीर्षक से देशवासियों और सेना को क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही थी और इससे किसके हितों की पूर्ति हो रही थी, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।

क्या कारण है कि ग्लोबल टाइम्स के इस निष्कर्ष को कि चीन में भारतीय प्रधानमंत्री के आधिकारिक बयान की बहुत प्रशंसा हो रही है, हमारे अखबार ज्यो का त्यों प्रकाशित करते हैं? यह जानते हुए कि ग्लोबल टाइम्स की हैसियत चीनी सत्ता-प्रतिष्ठान के प्रोपेगैंडा-मशीन से अधिक कुछ नहीं हैं। यही ग्लोबल टाइम्स पिछले पांच सालों से भारतीय प्रधानमंत्री को अतिराष्ट्रवादी रवैये के लिए कोसता रहा है। उसकी यह स्टोरी प्रधानमंत्री की राष्ट्रवादी और मजबूत निर्णय लेने वाली छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए प्लांट की गई थी। भारत का मीडिया उसकी चाल में फंसा, और उसके बाद कुछ राजनीतिक दल भी। यह एक वेल-डिजाइन और वेल-टारगेटेड स्टोरी थी।

ऐसा नहीं है कि ग्लोबल टाइम्स की भारतीय प्रधानमंत्री की मजबूत और निर्णायक छवि को नुकसान पहुंचाने की कोशिश अपने तरह की पहली कोशिश हो। भारत में  2019 में होने वाले आम चुनावों के ठीक पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने यह कहते हुए सबको हैरत में डाल दिया था कि यदि चुनावों में मोदी जीतते हैं तो भारत और पाक के शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। इससे पहले इमरान खान मोदी को हठी और शांति-प्रक्रिया का दुश्मन बताते रहे हैं। जाहिर है यह बयान मोदी को चुनावों में नुकसान पहुंचाने और उस फर्जी नैरेशन को मजबूत करने के लिए दिया गया था, जिसमें पुलवामा हमलों के लिए मोदी और पाकिस्तान की मिलीभगत का आरोप लगाया गया था। चुनाव समाप्त होने के बाद, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, इमरान खान ने फिर भूलकर भी ऐसा बयान नहीं दिया। स्पष्ट है कि सूचना-संग्राम का अपना आकलन, अपने निशाने और रणनीति होती है, जिसे समग्र परिप्रेक्ष्य में रखे बगैर समझा नहीं जा सकता।

ऐसा नहीं कि भारतीय मीडिया का जो वर्ग चायनीज वर्जन को अंतिम मानकर परोस रहा है, उसे मीडिया के जरिए लड़ी जाने लड़ाई और उसके तौर-तरीकों का पता न हो। इनमें से अधिकांश कई दशकों से मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय हैं, इसलिए उनकी समझ पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। फिर दो ही संभावनाएं बचती हैं, या तो वे घरेलू राजनीतिक-संघर्ष को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक खींचने की कोशिश कर रहे हैं या फिर उनकी निष्ठा देश के प्रति कभी रही नहीं हैं, और अन्य देशों के मीडिया आउटलेट का एक्सटेंशन काउंटर के रूप में कार्य रहे हैं। हो सकता है कि यह दोनों बातें साथ-साथ काम रही हों।  

भारतीय मीडिया के मेड इन चाइना संस्करण को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अविश्वसनीय होना चीन की सबसे बड़ी पहचान है। चीन और उसके उत्पादों के बारे में कोई भी किसी भी तरह का दावा करने से बचता है। दुकानदार, खरीददार सभी का चीनी उत्पादों के बारे में मूल्यांकन यही होता है-चीनी सामान है, कितने दिन चलेगा इसका कोई भरोसा नहीं। वहां की पत्रकारिता को लेकर अविश्वास तो और भी अधिक है। क्योंकि अभी दुनिया में जिन कुछ देशों में आयरन कर्टेन पॉलिसी शिद्दत के साथ लागू की जाती है, उनमें चीन सबसे ऊपर है। ऐसे में मेड इन चाइना वर्जन के सहारे भारत में पत्रकारिता करना राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक तो है ही, पत्रकारीय-मूल्यों के लिहाज से भी यह गर्त में जाने जैसा है।

चायनीज मीडिया के भारतीय संस्करणों को जून 2020 के तीसरे सप्ताह में यह बात समझ में आ गई होगी कि किसी दूसरे देश का भोंपू बनने और वास्तविक खबर के बीच अंतर करने का कौशल अब भारतीय जनता में आ गया है। इसलिए पत्रकारिता के मूल्यों की दुहाई देकर देशहित के साथ खिलवाड़ करने का खेल भी वह अच्छी तरह समझने लगी है। अब चीन के सबसे बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले शुन झू की बिना लड़े युद्ध जीतने की नीति भारत में आगे नहीं बढ़ पाएगी। ऐसे में चीन और भारत में काम कर रहे मेड इन चाइना वर्जन को स्वीकार करने वाले मीडिया का अवसाद और अवमूल्यन की तरफ बढ़ना बहुत स्वाभाविक है। 

बडे़ बदलाव की दस्तक

कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न हालात में भारतीय मीडिया ऐसे बडे़ बदलाव के मुहाने पर पहुंच गया है जहां मीडिया मालिकों, मीडियाकर्मियों और पाठकों/श्रोताओं सहित ‘न्यूजमेकर्स’ को भी अपनी आदतें बदलनी पड़ रही हैं। परन्तु यह तो बदलाव की दस्तक भर है। आने वाले दिनों में मीडिया का स्वरूप और भी नये रंगों में नजर आएगा। इसलिए और भी बडे़ बदलाव की तैयारी अभी से प्रारंभ कर लीजिए।

भारतीय मीडियाकर्मियों के लिए कोरोना वायरस के कारण लागू घरवास (लॉकडाउन) एक भयावह सपना सिद्ध हुआ है। उनकी हालत बेघर हुए लाखों प्रवासी मजदूरों से भी बदतर है। यह सही है कि ऑनलाइन मीडिया में काम करने वाले पत्रकार लॉकडाउन से उतने प्रभावित नहीं हुए, परन्तु प्रिंट और टेलीविजन पत्रकारों के सामने नौकरी का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। जो पत्रकार स्वतंत्र लेखन करके अपना जीवन-यापन करते रहे हैं अथवा छोटे समाचार पत्र-पत्रिकाओं में काम करते थे उनकी स्थिति बहुत दयनीय हो चली है। हालत यह है कि पत्रकारों के प्रमुख संगठन, दिल्ली पत्रकार संघ, के पास राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में बड़ी संख्या में मीडियाकर्मियों ने लॉकडाउन के दौरान राशन आदि के रूप में मदद की गुहार लगायी और दिल्ली पत्रकार संघ ने महज अप्रैल माह में ही कई सौ पत्रकारों की विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से सहायता करायी। संकट में फंसे हर व्यक्ति की आवाज बुलंद करने वाले पत्रकारों की यह हालत होगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। सरकार ने मजदूरों, किसानों आदि के लिए राहत पैकेज घोषित किये हैं, परन्तु कोरोना योद्धा के रूप में अग्रिम मोर्चे पर डटकर काम करते हुए इस खतरनाक वायरस की चपेट में आ चुके पत्रकारों की सुध किसी ने नहीं ली। बहुत से स्वाभिमानी पत्रकार आज भी किसी के सामने मदद हेतु हाथ फैलाने के लिए तैयार नहीं हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि आखिर कब तक वे ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि संकट के अभी समाप्त होने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।

 

देशभर में पत्रकार भी हैं संक्रमितः

महामारी के दौरान अग्रिम मोर्चे पर रहकर काम कर रहे हैं अनेक पत्रकार देशभर में इस खतरनाक वायरस की चपेट में आ चुके हैं। मुंबई के ‘टीवी9मराठी चैनल’ के आईटी विभाग में कार्यरत रोशन डायस की तो 22 मई को इस वायरस के कारण मृत्यु हो गयी। रोशन पहले ‘स्टार न्यूज’ में भी काम कर चुके हैं। रोशन का अप्रैल में कोरोना टेस्ट हुआ था। उस टेस्ट में करीब 53 मीडियाकर्मी कोरोना पॉजिटिव मिले थे। उसी में रोशन भी एक था। उसे आइसोलेशन वार्ड में क्वारंटाइन किया गया था। हालत बिगड़ने पर उसे आईसीयू में भर्ती किया गया, जहां उसने 22 मई को दम तोड़ दिया। 46 वर्षीय रोशन के परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं। इधर, राजधानी दिल्ली में ज़ी न्यूज के पत्रकारों के कोरोना की चपेट में आने की खबर है। इसके अलावा भी कुछ और मीडिया हाउसों ने कोरोना पॉजिटिव मामलों की सूचना दी हैै। इंडिया न्यूज नेटवर्क में आउटपुट टीम की एक महिला कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव पायी गयी है।

 

छोटे प्रकाशन बंदः

इस संकट का एक और पहलू है। लॉकडाउन के कारण हजारों की संख्या में छोटे समाचार पत्रों का देशभर में प्रकाशन बंद हो गया है। यहां तक कि नामचीन पत्र-पत्रिकाएं सिर्फ डिजिटल संस्करण प्रकाशित करने के लिए बाध्य है। ‘पांचजन्य’ और ‘आर्गनाइजर’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं भी सम्पूर्ण लॉकडाउन की अवधि में सिर्फ डिजिटल संस्करण ही अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर रही हैं। हालांकि यह बात अलग है कि लॉकडाउन की इस अवधि में इसके डिजिटल पाठकों की संख्या में कई गुणा वृद्धि हुई है। यदि ये पत्रिकाएं इन डिजिटल पाठकों को अपने नियमित ग्राहकों में तब्दील कर लें तो यह उनकी बड़ी कामयाबी मानी जाएगी। यही सवाल अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी है।

 

‘वर्क फ्रॉम होम’ स्थायी ‘ट्रेन्ड’

लॉकडाउन के दौरान मीडिया में ‘वर्क फ्रॉम होम’ को बिना झिझक स्वीकार्यता मिली है। यहां तक कि देश की ‘पीटीआई’ जैसी बड़ी न्यूज एजेंसी का पूरा स्टाफ घर से ही काम कर रहा है। हालांकि, वर्ष 2015 से मेरे जैसे कुछ लोग मीडिया में ‘वर्क फ्रॉम होम’ की बात उठाते रहे हैं। परन्तु बड़ी संख्या में मीडिया नियंता हमारे सुझाव पर हंसते थे। परन्तु अब ‘वर्क फ्रॉम हॉम’ ने ही न केवल मीडिया संस्थानों का अस्तित्व बचाया, बल्कि मीडियाकर्मियों की नौकरी भी बचायी। संकट की इस घड़ी में जब लोग समाचार पत्र और पत्रिकाओं को भी वायरस फैलने का एक माध्यम मानकर उन्हें खरीदने में संकोच कर रहे हैं ऐसे में डिजिटल तकनीक ने लोगों की नवीन समाचारों की भूख को शांत किया है। हालांकि महामारी के कारण ‘वर्क फ्रॉम होम’ की यह परम्परा लॉकडाउन के बाद कितने दिन जारी रहेगी यह कहना अभी मुश्किल है, परन्तु बेहतर होगा कि मीडिया संस्थान इसे अपनी आदत में शामिल कर इसे नये ‘वर्क कल्चर’ के रूप में स्वीकार करें। सोशल मीडिया कंपनी ‘फेसबुक’ के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने 25 मई, 2020 को घोषणा की कि वर्ष 2030 तक उसके करीब आधे कर्मचारी अपने घरों से काम करने लगेंगे। कंपनी ने यहां तक कहा है कि वह सभी कर्मचारियों को स्थायी रूप से घर से ही काम करने की अनुमती देने की तैयारी कर रही है। फेसबुक अपने कर्मचारियों को यह विकल्प चुनने का ऑफर देने की तैयारी में है कि वे स्वयं तय करें कि वे कहां से बेहतर काम कर सकते हैं। इस दिशा में उनका तकनीकी विभाग इसे अमलीजामा पहनाने के लिए काम कर रहा है। ‘गूगल’ ने अपने कर्मचारियों को इस पूरे साल घर से काम करने की छूट दे दी है। ‘अमेजॉन’ और ‘माइक्रोसॉफ्ट’ ने भी इस साल कम से कम अक्टूबर तक घर से काम करने की अनुमति दे दी है। इसके अलावा सभी बड़ी कंपनियां सिर्फ तकनीक की मदद से घर से काम करके ही अपना व्यवसाय बचाकर अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन देने का प्रयास कर रही हैं। इसलिए माना जा सकता है कि महामारी के बाद घर से काम करना एक स्थायी ‘ट्रेंड’ बनने जा रहा है।

 

 

मीडिया में डिजिटल बूमः

कोरोना महामारी के दौरान जहां प्रिंट के प्रसार में जबर्दस्त कमी देखने को मिली है, वहीं टेलीविजन और डिजिटल की ‘व्युअरशिप’ में अप्रत्याशित उछाल आया है। टेलीविजन की बात करें तो आम मनोरंजन के कार्यक्रमों की तुलना में समाचारों की ‘व्युअरशिप’ भी काफी बढ़ी है। मनोरंजन की दृष्टि से दशकों बाद ‘दूरदर्शन’ की ‘व्युअरशिप’ में उछाल आया है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सहित पुराने धारावाहिकों को एक बार फिर बहुत पसंद किया गया। डिजिटल मीडिया में समाचार वेबसाइट्स को 35 से 50 प्रतिशत तक अधिक रीडरशिप मिली है। इसमें भी मोबाइल पर खबरें पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी है। यह इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में डिजिटल में अपार संभावनाएं हैं। अभी तक जो लोग आदतन छपा हुआ अखबार पढ़ने के आदी थे वे भी अब मोबाइल पर खबरें पढ़ने की आदत डाल रहे हैं। इसलिए जो मीडिया हाउस डिजिटल-केन्द्रित रणनीति बनाएगा वह आगे जाएगा। अभी डिजिटल के साथ सबसे बड़ा प्रश्न रेवेन्यू का है। इसलिए मीडिया के समक्ष बड़ी चुनौती यह है कि डिजिटल से ‘रेवेन्यू जनरेशन’ कैसे हो? इसके लिए सिर्फ मीडिया घरानों को ही नहीं, बल्कि पाठकों को भी बदलना पडे़गा। जितना पैसा वे हर माह अखबार के हॉकर को देते हैं उतना नहीं तो उससे कम पैसा देकर उन्हें डिजिटल संस्करण पढ़ने के लिए देने की आदत डालनी होगी। कुछ समाचार पत्रों ने डिजिटल में ‘सबस्क्रिप्शन मॉडल’ शुरू किये हैं। पहले जिन बड़े अखबारों ने इस मॉडल को नहीं अपनाया था अब वे भी ‘पेवॉल’ के बारे में सोचने को मजबूर हैं।

संकट के इस दौर में डिजिटल को इसलिए भी नया पाठक वर्ग मिला है क्योंकि हर कोई पल-पल की नवीन जानकारी चाहता है। सभी को चिंता है कि कब क्या हो जाए पता नहीं। कहीं उनकी ही बिल्डिंग में या आसपास कोरोना का कोई नया मामला तो नहीं निकल आया। जो नए रेड जोन जारी हो रहे हैं वे कौन-कौन से हैं? नई गाइडलाइंस जारी हो रही हैं। कोई नई अधिसूचना आ रही है, वॉट्सएप पर इससे जुड़ी तमाम खबरें आ रही हैं। इन सभी चीजों ने डिजिटल को और मजबूत किया है। लोगों को यह समझ में आ गया है कि उन्हें यदि किसी खबर के बारे में अपडेट चाहिए तो उन्हें डिजिटल से जुड़ना पड़ेगा और यदि खबर का सार चाहिए या किसी खबर का महत्वपूर्ण हिस्सा पढ़ना है या किसी खबर के बारे में 400-500 या हजार शब्दों में जानकारी चाहिए तो अगले दिन अखबार में ही मिलेगी। इसलिए समाचार पत्र का डिजिटल संस्करण भी चाहिए।

डिजिटल तीनों माध्यमों का समागम है, जहां पाठकों को टेक्स्ट, ऑडियो और विडियो सभी मिल जाते हैं। यह सुविधा अखबारों में नहीं मिलती।

 

चौंकाने वाले गैजेट्स की दस्तकः

गूगल-प्रेस एसोशिएसन के संयुक्त प्रयास से 2017 में प्रारंभ ‘रडार प्रोजेक्ट’ ने अमेरिकी और ब्रिटिश मीडिया में दो साल से खलबली मचा रखी है। सरकारी डाटा पर आधारित खबरें तैयार करने में यह प्रोजेक्ट काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसके अलावा चीन में टेलीविजन समाचार वाचन के लिए रोबोट एंकर के प्रयोग तीन साल से जारी हैं। हाल ही में चीन ने विश्व की पहली 3डी न्यूज एंकर को लांच किया। यह आधुनिक तकनीक से युक्त एक रोबोट है। चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी ‘शिन्हुआ’ और एक अन्य एजेंसी ने मिलकर इसे बनाया है। यह 3डी न्यूज एंकर आसानी से घूम सकती है और जैसी खबर होती है उसके चेहरे के हावभाव भी वैसे ही बदल जाते हैं। ये अपने सिर के बालों और ड्रेस में भी परिवर्तन कर सकती है। अभी यह एक महिला की आवाज में ही न्यूज पढ़ती है मगर इसमें एक खास बात ये है कि यह किसी भी व्यक्ति की आवाज की नकल कर सकती है। यानि यदि आप अमिताभ बच्चन की आवाज में समाचार वाचन चाहते हैं तो आने वाले समय में वह भी संभव हो सकेगा। इसलिए संभव है कि आने वाले समय में ऐसे 3डी न्यूज एंकर ही चैनलों पर समाचार वाचन करते हुए नजर आएं। इससे पहले चीन ने 2018 में ‘क्यू हाउ’ नाम से डिजिटल एंकर का प्रयोग किया था। उसे मशीन लर्निंग तकनीक के जरिए आवाज की नकल करने के योग्य बनाया गया था। ‘शिन्हुआ’ का दावा है कि आने वाले कुछ दिनों में रोबोट एंकर स्टूडियो के बाहर भी समाचार पढ़ते हुए देखे जा सकेंगे। यानि अभी कुछ चैनलों के एंकर स्टूडियो के बाहर एंकरिंग करते हुए दिखते हैं मगर आने वाले समय में इसमें रोबोट का भी इस्तेमाल हो सकेगा। हो सकता है कि टीवी की दुनिया में ऐसे रोबोट एंकर ही प्राइम टाइम में खबरें पढ़ते हुए दिखाई दें।

 

भविष्य के अखबारः

कोरोना महामारी के कारण जो माहौल बनता नजर आ रहा है उसमें यदि आने वाले दिनों में बहुमंजिले मीडिया हाउस महज एक कक्ष में सिमट जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हो सकता है कि मीडिया हाउस अपने वर्तमान बहुमंजिले भवनों को किराये पर उठाकर उनसे पैसे कमाएं क्योंकि ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कारण जब स्टाफ ही ऑफिस नहीं आएगा तो उन्हें विशाल भवनों की जरूरत नहीं होगी। इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में प्रिंट भी किसी गैजेट में सिमट जाए। पाठकों को रूमाल जैसे गैजेट थमा दिये जाएंगे। जब मन चाहा जेब से निकालकर खबर पढ़ ली और फिर मोडकर जेब में रख लिया। एक बदलाव यह होगा कि प्रिंट अब चौबीस घंटे में एक बार नहीं, बल्कि हर पल उस गैजेट के माध्यम से नवीन खबरें अपडेट करता रहेगा। इसलिए समाचार पत्र-पत्रिकाओं के स्वरूप में बड़ा बदलाव आना लाजिमी है। नये गजेट्स में सिमटने वाली पत्रिकाएं अब टैक्स्ट, ऑडियो और वीडियो का सम्मिश्रण उसी प्रकार प्रस्तुत करें जैसा कुछ साल पहले ‘हैरी पॉटर’ फिल्म और दूसरे कुछ ‘साइंस फिक्शन्स’ में देखा गया। कुल मिलाकर अब मीडिया मालिकों को ही नहीं, बल्कि मीडिया में काम करने वाले मीडियाकर्मियों, पाठकों और देश के नीति-निर्माताओं सभी को नये ढंग से सोचना होगा। जो इस बदलाव के लिए तैयार होंगे वे टिकेंगे जो नहीं बदलेंगे वे इतिहास का अध्याय बन जाएंगे।

महामारी का आयरन कर्टेन

एक सूचना छिपाने की कीमत कितनी बड़ी हो सकती है, इसका अंदाजा कोराना संकट से लगाया जा सकता है। साथ ही, सही समय पर सम्पूर्ण सूचना मिलनी क्यों जरूरी है, इसके बार में भी कोराना संकट ही हमें सचेत करता है। कोरोना ने दुनिया को एक अभूतपूर्व संकट में खडा़ कर दिया है, तो इसका एक बड़ा कारण सूचना के मोर्चे पर बरती गई लापरवाही है। कोरोना चीन में कैसा फैला, इसके बारे में संशय का लाभ चीन को दिया जा सकता है। लेकिन कोरोना दुनिया में कैसे फैला, इसके बारे में चीन की भूमिका को लेकर कोई संदेह नही है। चीन में यह चमगादड़ से मानव में आया वुहान की चर्चित हुआनान सीफूड बाजार से या फिर वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वायरोलाॅजी की लैब से, इसके बारे में स्पष्ट रूप से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन लगभग सभी देश इस पर एकमत है कि कोविड-19 एक वैश्विक महामारी इसलिए बन गई क्योंकि चीन ने दुनिया को इसके बारे में सही-समय पर सूचित करने में आपराधिक लापरवाही बतरती। यदि इस वायरस और इसकी प्रकृति के बारे में दुनिया को शुरुआती दौर पर सचेत कर दिया गया होता तो सार्स की तरह कोविड-19 का प्रभाव भी एक सीमित दायरे में रह जाता।
सार्स के संक्रमण के दौरान इससे सम्बंधित सभी सूचनाएं वैश्विक स्तर पर पहुंच गई थी, और इसी कारण इसका प्रभावी रोकथाम संभव हो सका। कोरोना-19 के मामले में स्थिति एकदम उलट दिखती है। चीन में दिसंबर महीने के दूसरे सप्ताह से ही कोरोना के मामले सामने आना शुरु हो गए थे लेकिन चीन ने इसका आकलन बहुत कामचलाऊ तरीके से किया। संभवतः उसे आर्थिक-नुकसान या अपनी छवि की चिंता सता रही थी। दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक चीन में यह संकेत मिलने शुरू हो गए थे कि कोविड-19 का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में हो सकता है। इसके बावजूद उसने इस सूचना को छिपाया। स्थिति तब और खराब हो गई, जब तमाम आशंकाओं के बीच चीन की साम्यवादी सरकार ने वुहान से अपने नागरिकों को दुनिया भर की यात्रा करने में कोई रोक नहीं लगायी। वुहान से दुनिया भर में जाने वाले लोग जैव-आत्मघाती दस्ते में तब्दील हो गए और जल्द ही कोविड-19 के संक्रमण ने वैश्विक-महामारी का रूप ले लिया।
चीन ने वस्तुस्थिति को छिपाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी सहयोग लिया। चीन की तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन को कोविड-19 की सूचना देने में बहुत विलम्ब किया गया और शुरूआती रिपोर्ट में चीन ने इस बात की जानकारी नहीं दी कि इसका संक्रमण एक इंसान से दूसरे इंसान में हो सकता है। इसीलिए 14 जनवरी को इस संगठन ने ट्वीट कर दुनिया भर को यह जानकारी दी कि चीन की शुरुआती जांच में इस बात के संकेत नहीं मिले हैं कि कोरोना वायरस इंसानों से इंसानों में फैलता है। लेकिन जब सभी देशों में कोरोना फैलने की खबरें आने लगीं तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक सप्ताह बाद ही 22 जनवरी को एक ट्वीट में यह जानकारी दी कि वुहान में कोरोना वायरस के इंसानों से इंसानों में फैलने के मामले सामने आए हैं। और फिर एक सप्ताह बाद इसी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया।
चीन और विश्व-स्वास्थ्य संगठन के गठजोड़ द्वारा सूचना छिपाने के आरोपों को इसलिए भी बल मिला क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ताईवान द्वारा दी गई सूचना पर कोइ ध्यान नहीं दिया था। ताईवान के आईलैंड्स सेंटर्स फाॅर डिजीज कंट्रोल के मुखिया चांउ जीहा ने प्रेस कान्फ्रेंस कर बताया कि ताइवान ने 31 दिसंबर को ही डब्ल्यूएचओ को इस नए वायरस इंसान से इंसान में फैलने के बारे में सचेत किया था। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस महत्वपूर्ण सूचना पर कोई सटीक प्रतिक्रिया नहीं दी। इसके बाद अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने भी चीन और विश्व-स्वास्थ्य संगठन की भूमिका पर सवाल उठाया। मंत्रालय के अनुसार कोविड-19 को रोकने के लिए जब राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन से आने वाले यात्रियों पर रोक लगाने का फैसला लिया था तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे गलत फैसला करार दिया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिका इसके बाद किस तरह आमने-सामने आए, यह अलग कहानी है।
चीन का आंतरिक घटनाक्रम भी इसी बात की तरफ संकेत करता है कि चीन ने कोविड-19 से सम्बंधित सूचनाओं को छिपाने के लिए जानबूझकर प्रयास किए। चीन के वुहान केन्द्रीय अस्पताल में कार्यरत नेत्र-विशेषज्ञ डॉ. ली वेनलियांग ने 30 दिसंबर को ही अपने साथी डाॅक्टरों को सूचित किया था कि उन्होंने कुछ मरीजों में सार्स जैसे लक्षण दिखे हैं। चीन की साम्यवादी सरकार ने इस सूचना को गम्भीरता से लेने के बजाय डॉ. वेनलियांग को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का रास्ता चुना। चार दिन बाद चीनी प्रशासन के पब्लिक सिक्यूरिटी ब्यूरो ने उन्हें आॅफिस बुलाया और उन्हें एक पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया। उस पत्र में उन गलत टिप्पणी करने और सामाजिक व्यवस्था को बुरी तरह से अस्तव्यस्त करने के आरोप लगाए गए थे। वह उन आठ लोगों में से एक थे, जिन पर अफवाह फैलाने के आरोप लगाकर जांच की गई। सही सूचना देने, खतरे के बारे में बताने के लिए डाॅ. वेनलियांग से जिस तरह से व्यवहार किया गया, वह साबित करता है कि चीन ने कोविड-19 सम्बंधी सूचनाओ को लेकर किस तरह का अपारदर्शी रुख अपनाया हुआ था।
चीन का सूचनाओं से खेलने का दृष्टिकोण तब भी दुनिया के सामने आया जब उसने वुहान में कोविड-19 से मरने वाले व्यक्तियों की संख्या में यकायक परिवर्तन कर दिया। 17 अप्रैल को चीन ने वुहान में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या में 1,290 की बढ़ोतरी कर दी, इसके कारण मौतों का आंकड़ा कुल 3,869 हो गया। आंकडों में इस परिवर्तन ने दुनिया भर का ध्यान अपनी तरफ खींचा। इससे यह घारणा भी मजबूत हुई कि चीन सही आंकड़ों और सूचनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इस प्रकरण को लेकर चीन पर निशाना साधते हुए ट्वीट किया कि ’’ इस अज्ञात शत्रु से होने वाली मौतों का आंकड़ा चीन अचानक बढ़ा कर दोगुना कर दिया है। लेकिन ये इससे कहीं अधिक है। ये अमरीका में हो रही मौतों के आंकड़े से भी कहीं अधिक है।’’
चीन द्वारा कोविड-19 के सम्बंध में सूचना दबाने का एक अन्य प्रकरण को ’ सिक्स डे डिले’ के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार चायनीज प्रशासन ने कोविड-19 के खतरे के बारे में सभी औपचपारिक सूचनाएं 14 जनवरी को दे दी थीं लेकिन चीनी राष्ट्रपति ने इसे 20 जनवरी को सार्वजनिक किया। तब तक इसके कारण 3000 हजार से अधिक लोग सक्रमित हो गए थे।
कोरोना संक्रमण के समय चीन में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन और पारदर्शी सूचना प्रणाली का घोर अभाव दिखा है। इस समय एक एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के बजाय चीन का व्यवहार टिपिकल साम्यवादी देश की तरह है। प्रायः प्रत्येक साम्यवादी देश में वैचारिकी के नाम पर उत्तरदायित्व और पारदर्शिता की बलि चढ़ा दी जाती है। शासक तानाशाह बन जाते हैं और सूचनाएं आयरन कर्टेन में कैद हो जाती है। आयरन कर्टेन सूचना-प्रवाह को अपने हितों के अनुसार नियंत्रित और बाधित करने वाली साम्यवादी देशों की नीति रही है। इस आयरन कर्टेन के कारण कोविड-19 की सूचनाएं दुनिया तक सही समय पर नहीं पहुंची और महामारी ने पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में ले लिया। आगे ऐसा न हो इसलिए साम्यवादी आयरन कर्टेन का वैश्विक मंच से गायब होना आवश्यक है।

 

मंथन का महोत्सव कुम्भ

जल की धाराएं तो हर बार हिमालय से निकल कर सागर में मिल जाती हैं लेकिन परम्परा की धाराएं कई बार समुद्र से निकलकर कर हिमालय तक पहुंच जाती हैं। परम्पराओं में चतुर्दिक चलने का सामर्थ्य होता है और ढलान हर बार इनके मार्ग का निर्धारण नहीं करता। परम्पराओं की इसी सामर्थ्य और प्रकृति से देश में एकता के सांस्कृतिक सूत्र निर्मित होते हैं। समुद्र मंथन की कथा परम्पराओं के चहुंओर बढ़ने के इस सामर्थ्य का उदाहरण है। एक ऐसी कथा जिसके केन्द्र में समुद्र है लेकिन उसकी उपस्थिति और प्रभाव अखिल भारतीय है। इस कथा की मथनी का सहयोग लेकर आज भी आम भारतीय अपना धर्मपथ निर्धारित करने की कोशिश करता है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि सबसे अधिक परम्पराओं का सृजन इस कथा ने ही किया है, शिव के जलाभिषेक की परम्परा हो या कुंभ स्नान की परम्परा और सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण से सम्बंधित परम्पराएं, सबके केन्द्र में समुद्र मंथन है। इससे भी अधिक आश्चर्य का विषय यह है कि समुद्र-मंथन से जुड़ी परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हैं, भारतीय संस्कृति के कुछ निश्चित संदेशों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सम्प्रेषित कर रही हैं। आखिर समुद्र मंथन की कथा भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों की अभिव्यक्ति की महाकथा क्यों बन गई है ? मंथन की इस कथा ने अपने भीतर कौन से संदेश संजोए हुए हैं? इससे भी बड़ी प्रश्न यह कि भले ही समुद्र-मंथन निकली परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हों, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में इस कथा में निहित संदेशों की कोई प्रासंगिकता बची भी है या नहीं। ये सारे प्रश्न एक पुनर्मंथन करने को विवश करते हैं।
समुद्र
-मंथन की कथा के केन्द्र में मंथन है। मंथन ही इस कथा का सबसे बड़ा मूल्य भी है। प्रायः मंथन का यह मूल्य कुछ आदर्शों को स्थापित करने की इच्छा से उपजता है लेकिन कोरे आदर्शों के जरिए आगे नहीं बढ़ता। यह यथार्थ की सटीक समझ के आधार पर आदर्शों को स्थापित करने की प्रक्रिया है। कथा तो यही संदेश देती है। समुद्र-मंथन की योजना देवों के पराजित होने के बाद बनाई जाती है, और देवों को पराजित करने वाले असुरों को सहभागी बनाकर बनाई जाती है। शत्रु को सहभागी बनाने का कारण क्या है ? ऐसा नहीं था कि असुरों का मन बदल गया था। उन्हें अमृत प्राप्त करने की योजना का हिस्सा बनाने के अपने जोखिम थे लेकिन यथार्थ यह था कि उनकी शक्ति को नकारकर, उन्हें सहभागी बनाए बिना समुद्र मंथन नहीं किया जा सकता था। देवता अक्षम थे और अकेले समुद्र- मंथन करना उनके सामर्थ्य के बाहर था। उनको सहभागी बनाना यथार्थ की स्वीकृति थी। समुद्र-मंथन का सबसे बड़ा संदेश यथार्थ की स्वीकृति ही है। आपको प्रिय हो या अप्रिय, यथार्थ को स्वीकार किए बगैर सच और सफलता की तरह आगे नहीं बढ़ जा सकता। यथार्थ का सामना करने का साहस आदर्श गढ़ने, पाने की मूलभूत शर्त है।
यह कथा बताती है कि मंथन एक बहुआयामी और जटिल प्रक्रिया है। इतनी जटिल की कई बार विरोधाभासी प्रतीत होती है। लेकिन जो सत्य के लिए, धर्म के लिए विरोधाभासों को साध सके, विरोधियों को साथ ले सके, वही मंथन कर पाने में सक्षम होता है। मंथन का आदर्श शिव है और यथार्थ शक्ति है। देवता मंथन के लिए अपने अहंकार को त्यागकर असुरों से संवाद करते हैं, उनसे समुद्र मंथन में सहभागी होने का निवेदन करते हैं, तो इसका कारण बड़े लक्ष्य के प्रति उनकी सजगता है। मंथन की कथा का दूसरा प्रमुख संदेश यही है। अहंकार का कद कभी भी लक्ष्य से बड़ा नहीं होना चाहिए। पूरी तरह सजग रहते हुए सभी शक्ति
-केन्द्रों का सम्मान करना, उनसे संवाद करना, सहभागी बनाना यही मंथन है। संवाद रचने या सहभागिता सुनिश्चित करने का आशय नहीं होता सजगता छोड़ दी जाए। लक्ष्य और शत्रु के प्रति सजगता मंथन की पूर्व शर्त है। समुद्र-मंथन में भी यह सजगता दिखती है। अमृत को लेकर मनमोहिनी रूप करने का प्रकरण यह साबित करता है कि निर्णायक क्षणों में देवपक्ष अपने लक्ष्य को लेकर सजग है।
मंथन भविष्य के अनिश्चय को स्वीकार करने का साहस है। यह मनमाने, मनमाफिक निष्कर्षों पर पहुंचने और उन पर विश्वास करने से हमें रोकती है। मंथन-जो है, उससे संवाद है और जो होना चाहिए, उसकी आकांक्षा है। और यथार्थ तो परिवर्तनशील है। वह कब, कौन सा रूप धरकर हमारे सामने खड़ा हो जाए, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। इसलिए भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर अपने मार्ग पर आगे बढ़ना यह मंथन का तीसरा संदेश बन जाता है। मंथन की प्रारंभिक स्थिति में कोई भी पक्ष यही नहीं जानता कि समुद्र-मंथन क्या परिणाम लेकर आएगा। लेकिन देवपक्ष इस बात को लेकर स्पष्ट है कि इसे टाला नहीं जा सकता। मार्ग में हलाहल विष है और अंत में अमृत का कुंभ भी। भविष्य के इस अनिश्चित स्वरूप को स्वीकार करने का साहस होने पर मंथन की घटना जन्म लेती है।
समुद्र-मंथन की यह कथा हमें इस बात के लिए भी आश्वस्त करती है कि यदि हम भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर आगे बढ़ते हैं तो अंतिम परिणाम अच्छा ही होता है, अंत में अमृत-कुंभ ही प्राप्त होता है। अंतिम निष्कर्ष सत्यमेव जयते ही है। यह इस कथा से मिलने वाला सम्बल है। सत्य में अनुरक्ति और उसकी विजय में विश्वास यह भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य है, समुद्र-मंथन भी इस मूल्य को पोषित करता है।
कुंभ को मंथन के इन संदेशों के परिप्रेक्ष्य में ही ठीक ढंग ढंग से समझा जा सकता है। कुंभ महोत्सव का मंथन की इस कथा से गहरा सम्बंध हैं। कुभ मंथन की देन है और यह मंथन की परम्परा को आगे बढ़ाने का आयोजन भी। कुंभ को मंथन का महोत्सव बनाकर ही अमृत की कुछ बूंदे प्राप्त देश-समाज के लिए प्राप्त की जा सकती हैं। मंथन का महोत्सव बनने की स्थिति में कुंभ संघर्ष-समाधान का सबसे प्रभावी और बड़ा उपकरण बन सकता है और संघर्षों से निजात खोजती दुनिया के लिए कुंभ की यह भूमिका अमृत की किसी बूंद से कम नहीं होगी।
कुंभ संघर्ष-समाधान की सनातन परम्परा है और संघर्षों के समाधाना की संभावनाएं अब भी इसमें बची हुई है। अपने-अपने हिस्से के सच को अंतिम सच मान लेना बहुत स्वाभाविक है। यदि टुकड़ों में बंटे सच एक दूसरे से संवाद न करें तो वृहदतर सच अपरिचित रह जाता है, बड़ी संभावनाएं आकार नहीं ले पातीं।यह स्थिति ही अतिवादिता को जन्म देती है। अपनी सीमाओं का भान न रहने पर सच का हर टुकड़ा, दूसरे के खिलाफ जिहाद छेड़ देने पर आमादा हो जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। अतिवादित और संवादहीनता की वर्तमान दौर में कुंभ जैसे आयोजनों के मूलभाव को पुर्नजीवित किया जाना बहुत आवश्यक हो जाता है क्योंकि कुंभ व्यवस्थागत घटकों के बीच संवाद का एक वृहद पारंपरिक प्लेटफार्म रहा है।
भारतीय संस्कृति संवाद से ही सत्य के उपलब्ध होने की बात कहती है। आप अध्यात्म के सूत्रों को पहचान करना चाहते हैं अथवा एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं, इसके लिए संवाद से बढ़कर कोई मानवीय और समग्र तरीका नहीं हो सकता। संवाद की अवधारणा के आधार पर ही लोकतांत्रिक मूल्य पनपते हैं और सहिष्णु लोकमानस भी बनता है। किसी भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों की पहचान और समाधान के लिए अधिकतम् सुझाव, संवाद की प्रक्रिया के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। संवाद की अतिशय महत्ता को ध्यान में रखकर ही शायद इसे धार्मिक पवित्रता की परिधि में प्रस्तुत किया जाता है। किसी के मत को खत्म करने के लिए शस्त्र उठाने की परंपरा हमारे यहां कभी भी नहीं रही। कुंभ, संवाद की इस परम्परा का सांस्थानिक स्वरूप है।
अमृत और अमरता का भी कुंभ से गहरा संबंध है। साधारणतया अमृत से एक ऐसे पदार्थ का आशय निकाला जाता है,जिसको ग्रहण करने के बाद हम कालवाह्य हो जाते हैं,कालातीत हो जाते हैं,काल के गुणधर्म से परे हो जाते हैं। अस्तित्व का विस्तार त्रिकाल में हो जाता है। लेकिन यह अमृत और अमरत्व की बहुत रूढ़ व्याख्या है। रूपांतरण की प्रक्रिया के जरिए अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी एक प्रकार का अमरत्व है। भारतीय संस्कृति का अमरत्व कुछ इसी प्रकार का है। सामयिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति का कलेवर बदल जाता है,लेकिन उसके मूलाधार नहीं बदलते। वह नितनवीन होने के साथ भी चिरपुरातन भी बनी रहती है। नितनवीन और चिरपुरातन के बीच संतुलन बिंदुओं की खोज और उनको साधने की प्रक्रिया में कुंभ जैसे आयोजनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आज जब हम परिवर्तनों के अंधड़ में जी रहे हैं तब इस संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक हो गई है। यदि हम कुंभ को व्यवस्थागत संवाद के प्लेटफार्म के मूलस्वरूप में स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित रूप से संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज भी कर लेंगे। ऐसा करना अपनी सांस्कृतिक धारा को अक्षय बनाए रखने के लिए जरूरी है।
कुंभ जैसे वृहत्तर आयोजन के जरिए मंथन के मूल्य और संवार की संस्कृति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है। यदि ऐसा हो सके तो हम निश्चित रूप से सनातन को पोषित करने की स्थिति में होंगे क्योंकि सनातन को अमरता की बूंदे मंथन के मूल्य और संवाद की संस्कृति से ही मिलती रही हैं।

सरस संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया

संज्ञाएं पहचान का आधार होती हैं। संज्ञाशून्य होना पहचानविहीन होने जैसा है। इसीलिए, पहचान गढ़ने का कोई भी काम किसी संज्ञा से प्रारम्भ होता है। यदि किसी व्यक्ति या समाज से उसकी संज्ञाए छीन ली जाएं तो उसके सामने पहचान का संकट खडा हो जाता है। यही खासियत उन्हें सांस्कृतिक और साभ्यतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है। हर आक्रांता देर-सवेर उन संज्ञाओं का नाम बदलना चाहता है, जिनसे आक्रांत समाज की पहचान जुड़ी हुई होती है।
संज्ञाएं किसी समाज की वास्तविक पहचान को न केवल उसकी स्मृति में न केवल बनाए रखती हैं बल्कि उस पहचान को फिर से स्थापित करने हेतु संघर्ष करने के लिए प्रेरित भी करती है। इसीकारण ये आक्रांताओं के सामने चुनौती बन जाती है। इसलिए संज्ञाहरण या संज्ञा

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसकी घोषणा 19 दिसम्बर 2016 को ही कर दी थी। अब इससे सम्बंधित वैश्विक कार्यक्रमों की विधिवत शुरुआत भी पेरिस स्थिति यूनेस्को हाउस से हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र प्रत्येक वर्ष को किसी चयनित मुद्दे के ‘अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाता है। इस संस्था के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित करना अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता को बताने और उसकी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने का एक तरीका है।
संयुक्त राष्ट्र की इस परम्परा के लिहाज से देखें तो वर्ष 2019 को ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाने में कोई अनूठापन नहीं दिखता। सामान्य समझ तो यही बनती है कि संयुक्त राष्ट्र इस वर्ष देशज भाषाओं के संरक्षण
-संवर्द्धन के लिए विशेष प्रयास करेगा। वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे भाषायी-सम्मोहनों और दबावों के बीच संयुक्त राष्ट्र की ऐसी पहल साहसी मानी जाएगी। लेकिन बात केवल साहस की नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी समझ के अनुसार इस वर्ष को मनाने जा रहा है, वह उसके निर्णय को अनूठा और क्रांतिकारी दोनों बना देते हैं।
संयुक्त राष्ट ने ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के लिए जो थीम निर्धारित की है, वह अब तक की भाषायी समझ को सिर के बल खड़ी कर सकती है। थीम के अनुसार ‘देशज भाषाएं विकास, शांति
-निर्माण, सुलह का उपकरण हैं।’ इस थीम की जरूरत और आशय को अधिक स्पष्ट करते हुए संयुक्त राष्ट्र एक आकार लेती भाषायी समझ की तरफ संकेत करता है।
इस संस्था के ही शब्दों में कहें तो ‘भाषाएं लोगों के रोजमर्रा के जीवन में संचार, शिक्षा, सामाजिक एकीकरण और विकास के उपकरण के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि लोगों की विशिष्ट पहचान, सांस्कृतिक इतिहास, परम्परा और स्मृति का भण्डार भी हैं। इतना मूल्यवान होने के बावजूद विश्व भर में भाषाएं खतरनाक दर से विलुप्त हो रही हैं। इस बात को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ‘देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है, ताकि इनके बारे में जागरूकता पैदा हो सके। इसका लक्ष्य इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों को लाभ पहुंचाना तो है ही, उन अन्य लोगों को भी इस बात का अहसास दिलाना है कि देशज भाषी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता में किस कदर योगदान कर रहे हैं।’
संयुक्त राष्ट्र ने देशज भाषाएं क्यों महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए 6 कारण गिनाए हैं। संस्था के अनुसार देशज भाषाएं ज्ञान और दुनिया को समझने की एक विशिष्ट प्रणाली से हमारा परिचय कराती है। देशज भाषाएं शांति का माध्यम है, यह टिकाउ विकास, निवेश, शांति
-स्थापना और सुलह का के रास्ते खोलती हैं। भाषा मूलभूत मानवाधिकार और स्वतंत्रता है। यह सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देती है। और अंतिम यह कि यह विविधता की पोषक है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा देशज भाषाओं के पक्ष में दिए गए इन तर्कों की वजह से भाषा का कद यकायक बढ़ जाता है। इस बड़े फलक पर भाषा का जुड़ाव हर उदात्त आदर्श से हो जाता है, वह मानवीय मूल्यों तक पहुंचने का प्राथमिक उपकरण बन जाती है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित ‘मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स’ या ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’ के संदर्भों में भाषाओं की अहमियत बढ़ जाती है। ऐसा लगता है कि भाषायी सामर्थ्य का निवेश किए बगैर किसी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। भाषा मूलभूत अधोसंरचना के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है।
संयुक्त राष्ट्र ने भाषायी सामथ्र्य के अनछुए लेकिन प्रभावी पहुलओं की अपनी स्वीकृति दे दी है। इसी के साथ बदलाव और टकराव की भूमिका भी तैयार कर दी है। भाषा अब जिस नए कलेवर में हमारे सामने आ रही है, उसका सामथ्र्य यदि अपने सम्पूर्ण कलाओं के साथ अवतार ले रहा है, तो इससे भविष्य में व्यापक बदलाव दिख सकते हैं। लेकिन इसके साथ टकराव के नए मोर्चे भी तैयार होंगे।
अभी तक भाषा को पहनने वाले कपड़े के तरह परोसा जाता था। जब चाहे बदल लो। वह तो अभिव्यक्त का उपकरण भर है, इसे संस्कृति, पहचान से जोड़ना मूर्खता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र तो स्पष्ट कह रहा है कि भाषा पहचान को गढ़ती है और यह सांस्कृतिक स्मृतियों का सामूहिक कोश है। चुनौती इस तर्क को भी मिलेगी कि परम्परा को किसी भी भाषा में आगे बढ़ाया जा सकता है, इसलिए परम्परा के आग्रही व्यक्तियों को भाषा के बारे में आग्रह नहीं रखना चाहिए।
प्रश्न उस लोकप्रिय तर्क पर भी उठेंगे, जो कहता है कि विकास की खास भाषा होती है। भाषा
-विविधता को कलह का कारण मानने वाले भी संयुक्त राष्ट्र की नई भाषायी लाइन से निराश होंगे। भाषायी मानवाधिकार और भाषायी स्वतंत्रता की संकल्पनाएं, किस कदर उठापटक पैदा कर सकती हैं, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है। अभी तक मानवाधिकार की एक खास वैश्विक भाषा है और उसी खास भाषा में दक्षता प्राप्त कर स्वतंत्र होने की घोषणा की जा सकती है।
देशज भाषाओं के बहाने ही सही, संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी समझ को गढ़ने और फैलाने की कोशिश कर रहा है, उसके असर से कोई भी देश अछूता नहीं रहेगा। देश के भीतर भी विभिन्न मोर्चों पर इसके अलग
-अलग तीव्रता के प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। भारतीय संदर्भों में देखें तो संयुक्त राष्ट्र के नव-भाषायी संकल्पों से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में से एक मीडिया का क्षेत्र होगा। भारतीय मीडिया अब भी परम्परागत भाषायी आख्यानों से संचालित होता है। अधिकांश बिंदुओं पर उसकी दिशा संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के उलट दिखाई पड़ती है।
भाषा सम्बंधी एक आयाम का विश्लेषण भी इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होगा कि भारतीय मीडिया की भाषायी समझ ठहर गई है। नए अध्ययनों के आलोक में वह अपनी भाषायी समझ का विश्लेषण करने के लिए न तो तैयार है और न ही कहने का नया व्याकारण तैयार करने में उसकी रुचि है। मसलन, संयुक्त राष्ट्र जहां भाषा के माध्यम से शांति की संभावनाओं को तलाश रहा है। भाषा के संयमित-संतुलित उपयोग पर जोर दे रहा है, वहीं भारतीय मीडिया दिन--दिन कर्कश होती जा रही है। उसे लगता है कि सच चिल्लाकर-शोर मचाकर ही सच कहा जा सकता है।
भाषायी मर्यादा का हनन भारतीय मीडिया का स्थायी चरित्र बनता जा रहा है। शोरगुल तक तो फिर भी गनीमत थी। अब तो यह घृणा के स्तर तक पहुंच गया है। इसका ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब द क्विंट की एक पत्रकार ने सार्वजनिक रूप से अमित शाह की मौत की कामना की। 16 जनवरी 2019 को अमित शाह ने ट्वीट किया कि -मुझे स्वाइन फ्लू हुआ है, जिसका उपचार चल रहा है। ईश्वर की कृपा, आप सभी के प्रेम और शुभकामनाओं से शीघ्र ही स्वस्थ हो जाऊंगा। इस पर द क्विंट की पत्रकार स्तुति मिश्रा ने अमित शाह की मौत की इच्छा ट्वीटर पर जाहिर की।
इसी तरह द क्विंट के ही स्तंभकार विकास महरोत्रा ने 7 मार्च 2017 को ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी रोड की तस्वीर साझा करते हुए उनके मौत की कामना की थी। कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने पर जब तजिन्दर पाल बग्गा ने सिखों की चिंताओं को आवाज दी तो एक महिला पत्रकार ने उनके मरने की कामना करते हुए उन्हें शोक संवेदना भेजी।
एनडीटीवी की राजनीतिक सम्पादक सुनेत्रा चैधरी से इससे भी एक कदम आगे निकल जाती हैं। उन्होंने 3 अक्टूबर 2009 को एक ट्वीट किया था। ट्वीट नरेन्द्र मोदी को स्वाइन फ्लू होने से जुडा़ था और उसका आशय भी स्तुति मिश्रा जैसा ही था। अपने इस ट्वीट पर घिरने के बाद उनका उत्तर था कि मुझे ऐसा लिखने का कोई पछतावा नहीं है। मृणाल पांडे के नाम से पत्रकारिता जगत में सब परिचित ही हैं। उन्होंने पत्रकारिता से जुड़े कई सरकारी
-गैरसरकारी पदों की शोभा बढ़ाई है। एक मात्र बौद्धिक होने की आत्ममुग्धता उनमें मौक-बे-मौके दिखती रहती है। इसी कड़ी में वह प्रधानमंत्री को ‘वैशाखनंदन’ कह जाती हैं। आलोचना होने पर उन्होंने अपनी इस गलती को भी बौद्धिकता का मायाजाल रचकर
ये उदाहरण भारतीय मीडिया की भाषायी समझ पर प्रश्न जैसे हैं। संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया अपनी भूमिका को नए सिरे से कैसे परिभाषित करेगी, उस पर बहुतों की नजर रहेगी। भविष्य में विमर्श और विश्वसनीयता का स्तर मीडिया की भाषायी समझ पर ही निर्भर करेगा।

परिवर्तन करके साम्राज्यवादी शक्तियां अपने साम्राज्य को स्थायी बनाने का बंदोबस्त करती रही हैं। आक्रांताओं द्वारा संज्ञाओं के साथ खिलवाड़ इसलिए भी किया जाता है क्योंकि यह पराधीन समाज को नीचा दिखाने का अवसर भी प्रदान करता है।
दूसरी तरफ संस्कृति के प्रति संवेदनशील लोग नई संज्ञाओं को संरक्षित रखने की कोशिश करते हैं या आरोपित संज्ञाओं के स्थान पर मूल संज्ञाओं की वापसी के लिए संघर्ष करते हैं। एक सांस्कृतिक व्यक्ति भली प्रकार से यह जानता है कि संज्ञाओं के संरक्षण का मतलब अपनी सभ्यता-संस्कृति के गुणसूत्रों की रक्षा करना है। संज्ञा बीज है। यदि वह अक्षुण्ण बनी रहती है तो सांस्कृतिक प्रवाह भी कमोबेश बना रहता है। संज्ञा प्रेरणा और स्वप्न है। उसमें बदलाव का मतलब किसी सभ्यता के स्वप्नों और प्रेरणाओं पर कब्जा करना है।
एक सभ्यता के रूप में लगभग तेरह सौ वर्षों से राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्षों के साथ भारत संज्ञाओं के मोर्चे पर युद्धरत है। सत्ता हथियाने के बाद होने वाले नरसंहारों, मन्दिरों, लूट-पाट, बलात्कार शिक्षा में बदलाव जैसे बिंदुओं की चर्चा तो कमोबेश होती रही है, लेकिन भारत ने खुद को पहचान देने वाली संज्ञाओं के लिए कैसे संघर्ष किया है, इस पर चर्चा अभी न के बराबर हुई है। हाल में इलाहाबाद और फैजाबाद का ‘पुर्ननामकरण संस्कार‘ होने के बाद नाम और नामकरण को लेकर भारतीय मीडिया में यकायक चर्चाओं की बाढ़ आ गई। भारत के सांस्कृतिक अभिकेन्द्रों में शामिल रहे प्रयाग और अयोध्या को उनकी मूलसंज्ञा से सम्बोधित किए जाने के बाद भारतीय मीडिया में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह की छिछली चर्चाएं की गई और सतही दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया, उससे यह जरूरी हो गया कि संज्ञाओं से सम्बंधित परम्परागत भारतीय दृष्टिकोण से परिचित हुआ जाए।
उत्तर प्रदेश में परम्परागत संज्ञात्मक चेतना की कुछ स्थानों पर हुई अभिव्यक्ति के बाद मीडिया में जो बहस चली या चलाई गई, वह मुख्यतः चार तर्को के आधार पर गढ़ी गई। पहली यह कि नाम में क्या रखा है, किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है। दूसरा तर्क यह गढ़ा गया कि लोगों के विकास और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। नाम बदलने से वस्तुस्थिति थोड़ी ही बदल जाती है। तीसरे तर्क का सहारा कुछ मौलानानुमा लोगों ने लिया और यह कहा कि यदि नामकरण करना ही है तो नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण कर दिया जाए। और यह भी कि नामकरण इतिहास के साथ खिलवाड़ है।
इन चार तर्कों को यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोदी मीडिया के ये तीनों तर्क न केवल भोथरे हैं बल्कि उनकी सांस्कृतिक निरक्षरता के द्योतक भी हैं। भारत में गुणधर्म के आधार पर नामकरण करने की परम्परा रहा है। चर्चा में रहे अयोध्या या प्रयाग के नामकरण का उनकी विशेषताओं और इतिहास से गहरा सम्बंध है। अयोध्या का मतलब जो योध्य नही हैं, जिसे युद्ध में जीता नहीं जा सकता। प्रयाग के नामकरण का सम्बंध भी ब्रह्मा के प्रथम यज्ञ से है। केवल अयोध्या या प्रयाग का ही नहीं, व्यक्तियों या स्थानों का नामकरण उनके गुणधर्मों के निश्चित करने की भारत में परम्परा रही हैं। संज्ञाओं को लेकर इस अतिशय संवेदनशीलता के कारण ही भारत में निरुक्त जैसा एक पूर्ण शास्त्र अस्तित्व में आया और नामकरण को सोलह संस्कारों में शामिल किया गया। अब जिन्हें टॉम, डिक, हैरी में से कुछ भी चुन लेने की आदत है, वह निश्चित नाम के आग्रह और नामों के अवदान को स्वीकार कर पाएं, यह मुश्किल है। भारत में नामों की कितनी महत्ता है कि इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि भारतीयों ने कुछ अर्थों में नाम को राम से भी बड़ा मान लिया। तुलसीदास जी रामनाम को ही सर्वोत्तम तीर्थ बताते हुए कहते हैं कि
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कासी बिधि बसि तनु तजें, हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम
-नाम अनुराग।।
यानी विधिपूर्वक काशी में रहकर शरीर त्यागने से और प्रयाग में हठपूर्वक शरीर त्यागने से जो मोक्ष रूपी फल मिलता है, वह राम नाम में अनुराग होने से मिल जाता है। तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में नाम की विस्तृत महिमा गाई है। वह ‘को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू’ कहकर रूप और नाम की तुलना से बचते हैं लेकिन आगे जाकर रूप को नाम के अधीन बताने में भी नहीं हिचकते हैं-देखिअहिं रूप नाम अधीना। रूप ग्यान नहिं नाम विहीना। उनके अनुसार नाम में अनुराग रखने वाले भक्तों को हमेशा मंगल ही होता है-भाय कुभाय अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।
नाम-महिमा का यह चिंतन, अक्षर को अविनाशी और शब्द को ब्रह्म मानने वाली वृहद दार्शनिक रूप का प्रतिफल है। इसीकारण, भारतीय परम्परा अष्टोत्तरशतनामावली, सहस्रनामावली जैसी परम्पराओं का विकास हुआ। प्रयाग और अयोध्या के नामकरण को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भारतीय जनमानस को उसकी वास्तविक स्मृतियों से जोड़ने वाला आवश्यक सांस्कृतिक कर्म है।
इतिहासकार होने का दावा करने वाली एक टोली ने यह तर्क गढ़ा की नाम में बदलाव इतिहास के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ है। भारतीयता को लेकर हमेशा अरण्यरोदन करने वाली एक मंडली ने नामकरण को फिजूलखर्ची साबित करने की कोशिश की।
स्पष्ट है नामकरण को लेकर भारतीय परम्परा बहुत सजग और सुव्यवस्थित रही है। इसमें किसी का भी, कुछ भी नाम रख देने वाले चिंतन के लिए स्पेस न के बराबर रहा है। नामकरण से सम्बंधित परम्परागत बोध के छीजने के बावजूद आज भी एक सामान्य भारतीय परिवार में जन्मे नवजात का नामकरण उसकी जन्मकुंडली के आधार पर संभावित गुणों और विशेषताओं का ध्यान में रखकर किया जाता है। ऐसे में कम से कम भारतीय संदर्भों में तो यह तर्क हास्यास्पद ही कहा जाएगा कि नाम में क्या रखा है ? या किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है।
दूसरा तर्क यह है दिया गया कि नाम बदलने से वस्तुस्थित थोड़ी ही बदलती है। हां, यह सच है कि नाम बदलने से तुरंत वस्तुस्थिति में तो कोई बदलाव नहीं आता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इससे हमारी चेतना की प्रक्रिया और बोधात्मक स्वरूप में तुरंत ही बदलाव आ जाता है। यह बोधात्मक बदलाव देर
-सवेर वस्तुस्थिति में बदलाव का कारण बनता है। नामकरण, विकास की प्रक्रिया और सांस्कृतिक बोध में सम्बंध स्थापित कर वस्तुस्थिति में बदलाव का मजबूत और दूरगामी आधार सृजित करता है। विकास की दिशा यदि सांस्कृतिक-बोध से शून्य है तो ऐसा विकास न स्थायी होता है और न ही शुभ। ऐसा विकास अंततः रावण की लंका बनाता है, जो सोने की होते हुए अनाचार का पर्याय बनती है। इसलिए विकास और सांस्कृतिक बोध को साथ लाने का कार्य उचित नामकरण करने या मूल नामों को पुनः स्थापित करने से प्रारंभ होता है। नामकरण तुरंत बदलाव नहीं पैदा करता लेकिन यह ऐसा बोध पैदा करता है, जिससे बदलाव की संभावनाएं पैदा होती हैं।
जहां तक नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण करने की बात है तो आदर्श स्थिति में ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन यह तर्क उन शहरों के संदर्भ में अपने
-आप प्रासंगिक हो जाता है, जिनके प्राचीन नामों को आक्रांताओं ने जबरन बदल दिया। अयोध्या या प्रयाग प्राचीन नगर थे, इन नगरों से ही आस-पास के क्षेत्रों की पहचान होती थी। इन नगरों को आक्रमणकारियों ने तो नहीं बसाया था। धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों इन पुराने शहरों को नए नाम दे दिए गये थे। इसलिए सांस्कृतिक दृष्टि से बर्बर लोगों ने बिना शहर बसाए नए नामकरण करने की जो भूल की थी, उसका परिमार्जन किया जाना आवश्यक हो जाता है। अयोध्या और प्रयाग को उनका मूल सम्बोधन पुनः प्रदान कर ऐसा ही आवश्यक परिमार्जन किया गया है।
इतिहास के साथ खिलवाड़ करने की बात तो पूरी तरह देशबोध और कालबोध से जुड़ी बोध है। यदि आप का इतिहास 11वीं शताब्दी या 15वीं शताब्दी तक जाता है तो नैसर्गिक नाम देने के सरकारी प्रक्रिया इतिहास के साथ खिलवाड़ लगेगी लेकिन यदि आपका इतिहास बोध इससे और आगे जाता है तो यह इतिहास के साथ किए गए खिलवाड़ को ठीक करने जैसा होगा। मामला दृष्टि का है, कोई 11 शताब्दी के बाद के घटनाक्रम को ही इतिहास मानता है तो खुद ही इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहा है।
फिजूलखर्ची के संदर्भों में तो यही कहा जा सकता है कि अर्थ का सबसे अच्छा निवेश बोध, ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में ही हो सकता है। इन क्षेत्रों में किया गया निवेश अंततः आर्थिक दृष्टि से भी लाभकारी साबित होता है। नैसर्गिक नाम की वापसी बोध में बदलाव के लिए बहुत जरूरी है और इसमें होने वाले आर्थिक खर्चे को आवश्यक निवेश मानकर स्वीकार किया जाना चाहिए। यहां इस तथ्य को भी ध्यान रखना चाहिए कि लालबुझक्कणों की एक टोली आर्थिक खर्चे का तर्क तभी देती है जब देश कुछ मूलभूत और महत्वपूर्ण हासिल करने की दिशा में अग्रसर होता है। पोखरण के समय भी खर्चे का रोना
-रोया गया था, मंगलयान के समय भी और अयोध्या और प्रयाग के नामों को लेकर रोजी-रोटी की दुहाइयां दी जा रही है। रोजी-रोटी का प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन हमेशा सांस्कृतिक भाव-बोध या मूलभूत शोध के विरोध में जाकर ही रोजी-रोटी का प्रश्न उठाना शातिराना हरकत ही कही जाएगी।
जो यह मानते हैं कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष अब भी चल रहा है , उनके लिए नैसर्गिक नामों की वापसी एक आवश्यक कदम और महत्वपूर्ण उपलब्धि की तरह है। अकादमिक षड्यंत्रों और मीडियाई छल से परे जाकर आम जनमानस को टंटोले तो कृत्रिम नामों का हटना उनके लिए यह अरसे से कलजे पर रखे हुए पत्थर और सम्मान पर लगे हुए कलंक के हटने जैसा है। भारतीय जनमन का ईमानदारी से टंटोलें तो वहां पर यही स्थायी भाव मिलेगा।

संज्ञाओं के संघर्ष में सभ्यता

संज्ञाएं पहचान का आधार होती हैं। संज्ञाशून्य होना पहचानविहीन होने जैसा है। इसीलिए, पहचान गढ़ने का कोई भी काम किसी संज्ञा से प्रारम्भ होता है। यदि किसी व्यक्ति या समाज से उसकी संज्ञाए छीन ली जाएं तो उसके सामने पहचान का संकट खडा हो जाता है। यही खासियत उन्हें सांस्कृतिक और साभ्यतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है। हर आक्रांता देर-सवेर उन संज्ञाओं का नाम बदलना चाहता है, जिनसे आक्रांत समाज की पहचान जुड़ी हुई होती है।
संज्ञाएं किसी समाज की वास्तविक पहचान को न केवल उसकी स्मृति में न केवल बनाए रखती हैं बल्कि उस पहचान को फिर से स्थापित करने हेतु संघर्ष करने के लिए प्रेरित भी करती है। इसीकारण ये आक्रांताओं के सामने चुनौती बन जाती है। इसलिए संज्ञाहरण या संज्ञापरिवर्तन करके साम्राज्यवादी शक्तियां अपने साम्राज्य को स्थायी बनाने का बंदोबस्त करती रही हैं। आक्रांताओं द्वारा संज्ञाओं के साथ खिलवाड़ इसलिए भी किया जाता है क्योंकि यह पराधीन समाज को नीचा दिखाने का अवसर भी प्रदान करता है।
दूसरी तरफ संस्कृति के प्रति संवेदनशील लोग नई संज्ञाओं को संरक्षित रखने की कोशिश करते हैं या आरोपित संज्ञाओं के स्थान पर मूल संज्ञाओं की वापसी के लिए संघर्ष करते हैं। एक सांस्कृतिक व्यक्ति भली प्रकार से यह जानता है कि संज्ञाओं के संरक्षण का मतलब अपनी सभ्यता-संस्कृति के गुणसूत्रों की रक्षा करना है। संज्ञा बीज है। यदि वह अक्षुण्ण बनी रहती है तो सांस्कृतिक प्रवाह भी कमोबेश बना रहता है। संज्ञा प्रेरणा और स्वप्न है। उसमें बदलाव का मतलब किसी सभ्यता के स्वप्नों और प्रेरणाओं पर कब्जा करना है।
एक सभ्यता के रूप में लगभग तेरह सौ वर्षों से राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्षों के साथ भारत संज्ञाओं के मोर्चे पर युद्धरत है। सत्ता हथियाने के बाद होने वाले नरसंहारों, मन्दिरों, लूट-पाट, बलात्कार शिक्षा में बदलाव जैसे बिंदुओं की चर्चा तो कमोबेश होती रही है, लेकिन भारत ने खुद को पहचान देने वाली संज्ञाओं के लिए कैसे संघर्ष किया है, इस पर चर्चा अभी न के बराबर हुई है। हाल में इलाहाबाद और फैजाबाद का ‘पुर्ननामकरण संस्कार‘ होने के बाद नाम और नामकरण को लेकर भारतीय मीडिया में यकायक चर्चाओं की बाढ़ आ गई। भारत के सांस्कृतिक अभिकेन्द्रों में शामिल रहे प्रयाग और अयोध्या को उनकी मूलसंज्ञा से सम्बोधित किए जाने के बाद भारतीय मीडिया में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह की छिछली चर्चाएं की गई और सतही दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया, उससे यह जरूरी हो गया कि संज्ञाओं से सम्बंधित परम्परागत भारतीय दृष्टिकोण से परिचित हुआ जाए।
उत्तर प्रदेश में परम्परागत संज्ञात्मक चेतना की कुछ स्थानों पर हुई अभिव्यक्ति के बाद मीडिया में जो बहस चली या चलाई गई, वह मुख्यतः चार तर्को के आधार पर गढ़ी गई। पहली यह कि नाम में क्या रखा है, किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है। दूसरा तर्क यह गढ़ा गया कि लोगों के विकास और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए। नाम बदलने से वस्तुस्थिति थोड़ी ही बदल जाती है। तीसरे तर्क का सहारा कुछ मौलानानुमा लोगों ने लिया और यह कहा कि यदि नामकरण करना ही है तो नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण कर दिया जाए। और यह भी कि नामकरण इतिहास के साथ खिलवाड़ है।
इन चार तर्कों को यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि लोदी मीडिया के ये तीनों तर्क न केवल भोथरे हैं बल्कि उनकी सांस्कृतिक निरक्षरता के द्योतक भी हैं। भारत में गुणधर्म के आधार पर नामकरण करने की परम्परा रहा है। चर्चा में रहे अयोध्या या प्रयाग के नामकरण का उनकी विशेषताओं और इतिहास से गहरा सम्बंध है। अयोध्या का मतलब जो योध्य नही हैं, जिसे युद्ध में जीता नहीं जा सकता। प्रयाग के नामकरण का सम्बंध भी ब्रह्मा के प्रथम यज्ञ से है। केवल अयोध्या या प्रयाग का ही नहीं, व्यक्तियों या स्थानों का नामकरण उनके गुणधर्मों के निश्चित करने की भारत में परम्परा रही हैं। संज्ञाओं को लेकर इस अतिशय संवेदनशीलता के कारण ही भारत में निरुक्त जैसा एक पूर्ण शास्त्र अस्तित्व में आया और नामकरण को सोलह संस्कारों में शामिल किया गया। अब जिन्हें टॉम, डिक, हैरी में से कुछ भी चुन लेने की आदत है, वह निश्चित नाम के आग्रह और नामों के अवदान को स्वीकार कर पाएं, यह मुश्किल है। भारत में नामों की कितनी महत्ता है कि इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि भारतीयों ने कुछ अर्थों में नाम को राम से भी बड़ा मान लिया। तुलसीदास जी रामनाम को ही सर्वोत्तम तीर्थ बताते हुए कहते हैं कि
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कासी बिधि बसि तनु तजें, हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम
-नाम अनुराग।।
यानी विधिपूर्वक काशी में रहकर शरीर त्यागने से और प्रयाग में हठपूर्वक शरीर त्यागने से जो मोक्ष रूपी फल मिलता है, वह राम नाम में अनुराग होने से मिल जाता है। तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में नाम की विस्तृत महिमा गाई है। वह ‘को बड़ छोट कहत अपराधू, सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू’ कहकर रूप और नाम की तुलना से बचते हैं लेकिन आगे जाकर रूप को नाम के अधीन बताने में भी नहीं हिचकते हैं-देखिअहिं रूप नाम अधीना। रूप ग्यान नहिं नाम विहीना। उनके अनुसार नाम में अनुराग रखने वाले भक्तों को हमेशा मंगल ही होता है-भाय कुभाय अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।
नाम-महिमा का यह चिंतन, अक्षर को अविनाशी और शब्द को ब्रह्म मानने वाली वृहद दार्शनिक रूप का प्रतिफल है। इसीकारण, भारतीय परम्परा अष्टोत्तरशतनामावली, सहस्रनामावली जैसी परम्पराओं का विकास हुआ। प्रयाग और अयोध्या के नामकरण को इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भारतीय जनमानस को उसकी वास्तविक स्मृतियों से जोड़ने वाला आवश्यक सांस्कृतिक कर्म है।
इतिहासकार होने का दावा करने वाली एक टोली ने यह तर्क गढ़ा की नाम में बदलाव इतिहास के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ है। भारतीयता को लेकर हमेशा अरण्यरोदन करने वाली एक मंडली ने नामकरण को फिजूलखर्ची साबित करने की कोशिश की।
स्पष्ट है नामकरण को लेकर भारतीय परम्परा बहुत सजग और सुव्यवस्थित रही है। इसमें किसी का भी, कुछ भी नाम रख देने वाले चिंतन के लिए स्पेस न के बराबर रहा है। नामकरण से सम्बंधित परम्परागत बोध के छीजने के बावजूद आज भी एक सामान्य भारतीय परिवार में जन्मे नवजात का नामकरण उसकी जन्मकुंडली के आधार पर संभावित गुणों और विशेषताओं का ध्यान में रखकर किया जाता है। ऐसे में कम से कम भारतीय संदर्भों में तो यह तर्क हास्यास्पद ही कहा जाएगा कि नाम में क्या रखा है ? या किसी का कुछ भी नाम रखा जा सकता है।
दूसरा तर्क यह है दिया गया कि नाम बदलने से वस्तुस्थित थोड़ी ही बदलती है। हां, यह सच है कि नाम बदलने से तुरंत वस्तुस्थिति में तो कोई बदलाव नहीं आता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इससे हमारी चेतना की प्रक्रिया और बोधात्मक स्वरूप में तुरंत ही बदलाव आ जाता है। यह बोधात्मक बदलाव देर
-सवेर वस्तुस्थिति में बदलाव का कारण बनता है। नामकरण, विकास की प्रक्रिया और सांस्कृतिक बोध में सम्बंध स्थापित कर वस्तुस्थिति में बदलाव का मजबूत और दूरगामी आधार सृजित करता है। विकास की दिशा यदि सांस्कृतिक-बोध से शून्य है तो ऐसा विकास न स्थायी होता है और न ही शुभ। ऐसा विकास अंततः रावण की लंका बनाता है, जो सोने की होते हुए अनाचार का पर्याय बनती है। इसलिए विकास और सांस्कृतिक बोध को साथ लाने का कार्य उचित नामकरण करने या मूल नामों को पुनः स्थापित करने से प्रारंभ होता है। नामकरण तुरंत बदलाव नहीं पैदा करता लेकिन यह ऐसा बोध पैदा करता है, जिससे बदलाव की संभावनाएं पैदा होती हैं।
जहां तक नए शहरों को बसाकर उनका नामकरण करने की बात है तो आदर्श स्थिति में ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन यह तर्क उन शहरों के संदर्भ में अपने
-आप प्रासंगिक हो जाता है, जिनके प्राचीन नामों को आक्रांताओं ने जबरन बदल दिया। अयोध्या या प्रयाग प्राचीन नगर थे, इन नगरों से ही आस-पास के क्षेत्रों की पहचान होती थी। इन नगरों को आक्रमणकारियों ने तो नहीं बसाया था। धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों इन पुराने शहरों को नए नाम दे दिए गये थे। इसलिए सांस्कृतिक दृष्टि से बर्बर लोगों ने बिना शहर बसाए नए नामकरण करने की जो भूल की थी, उसका परिमार्जन किया जाना आवश्यक हो जाता है। अयोध्या और प्रयाग को उनका मूल सम्बोधन पुनः प्रदान कर ऐसा ही आवश्यक परिमार्जन किया गया है।
इतिहास के साथ खिलवाड़ करने की बात तो पूरी तरह देशबोध और कालबोध से जुड़ी बोध है। यदि आप का इतिहास 11वीं शताब्दी या 15वीं शताब्दी तक जाता है तो नैसर्गिक नाम देने के सरकारी प्रक्रिया इतिहास के साथ खिलवाड़ लगेगी लेकिन यदि आपका इतिहास बोध इससे और आगे जाता है तो यह इतिहास के साथ किए गए खिलवाड़ को ठीक करने जैसा होगा। मामला दृष्टि का है, कोई 11 शताब्दी के बाद के घटनाक्रम को ही इतिहास मानता है तो खुद ही इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहा है।
फिजूलखर्ची के संदर्भों में तो यही कहा जा सकता है कि अर्थ का सबसे अच्छा निवेश बोध, ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में ही हो सकता है। इन क्षेत्रों में किया गया निवेश अंततः आर्थिक दृष्टि से भी लाभकारी साबित होता है। नैसर्गिक नाम की वापसी बोध में बदलाव के लिए बहुत जरूरी है और इसमें होने वाले आर्थिक खर्चे को आवश्यक निवेश मानकर स्वीकार किया जाना चाहिए। यहां इस तथ्य को भी ध्यान रखना चाहिए कि लालबुझक्कणों की एक टोली आर्थिक खर्चे का तर्क तभी देती है जब देश कुछ मूलभूत और महत्वपूर्ण हासिल करने की दिशा में अग्रसर होता है। पोखरण के समय भी खर्चे का रोना
-रोया गया था, मंगलयान के समय भी और अयोध्या और प्रयाग के नामों को लेकर रोजी-रोटी की दुहाइयां दी जा रही है। रोजी-रोटी का प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन हमेशा सांस्कृतिक भाव-बोध या मूलभूत शोध के विरोध में जाकर ही रोजी-रोटी का प्रश्न उठाना शातिराना हरकत ही कही जाएगी।
जो यह मानते हैं कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष अब भी चल रहा है , उनके लिए नैसर्गिक नामों की वापसी एक आवश्यक कदम और महत्वपूर्ण उपलब्धि की तरह है। अकादमिक षड्यंत्रों और मीडियाई छल से परे जाकर आम जनमानस को टंटोले तो कृत्रिम नामों का हटना उनके लिए यह अरसे से कलजे पर रखे हुए पत्थर और सम्मान पर लगे हुए कलंक के हटने जैसा है। भारतीय जनमन का ईमानदारी से टंटोलें तो वहां पर यही स्थायी भाव मिलेगा।