आलेख

जानलेवा बहसों का शोर...

स्वाधीनता दिवस के ठीक दो दिन पहले तेरह अगस्त की शाम को कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव त्यागी का एक टेलीविजन बहस के बाद निधन होने के बाद लगा कि टेलीविजन चैनल और राजनीतिक दल मिलकर रोजाना शाम को रक्तचाप और धड़कनें बढ़ाने वाली बहसों के लिए ऐसा फॉर्मूला निकालने की तरफ बढ़ेंगे, जिससे भावी बहसें ना सिर्फ मुद्दा आधारित हों, बल्कि उनके मंथन के बाद राष्ट्र और समाज को कुछ मिलने की उम्मीद बढ़े। जिससे रक्तचाप नियंत्रित रहे और हंगामा जैसी स्थितियों से बचा जा सके। लेकिन दुर्भाग्यवश राजीव त्यागी का निधन भी बेकार जाता दिख रहा है। राजनीतिक दल इस दिशा में आगे बढ़ते नहीं दिख रहे हैं। रही बात टेलीविजन चैनलों की तो पिछले करीब एक दशक में उनका चरित्र ही इस तरह से विकसित हुआ है कि अगर उनकी बहसों से दर्शकों और चैनलों के अपने कार्यक्रम निर्माताओं की धमनियों में बहते खून में तेजी ना आ पाए तो उन्हें शायद ही चैन पड़े। 
राजीव त्यागी चूंकि कांग्रेस के प्रवक्ता थे, लिहाजा कांग्रेस से उम्मीद की जानी चाहिए थी कि शोक की घड़ी में वह कुछ गंभीरता दिखाएगी। लेकिन उसके कार्यकर्ताओं और छुटभैये नेताओं ने राजीव त्यागी के निधन के लिए भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें निशाने पर लेना शुरू कर दिया। उन्होंने जगह-जगह उनके खिलाफ पुलिस में एफआईआर दर्ज करा दी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का आरोप था कि आजतक चैनल के जिस कार्यक्रम के बाद राजीव त्यागी को हृदयघात पहुंचा, उसमें भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने जयचंद कहा था। हालांकि कांग्रेस का यह आरोप शायद ही किसी के गले उतरे। दर्शक और पत्रकार भी यह शायद ही स्वीकार कर पाएं कि राजीव त्यागी का निधन सिर्फ इस कथन के बाद लगे सदमे से हो गया। जो लोग टेलीविजन के कार्यक्रम बनाते रहे हैं, उन्हें पता है कि कुछ साल पहले तक स्टूडियो में बैठे विरोधी दलों तक के प्रवक्ता जब कार्यक्रम में ब्रेक होता था तो आपस में चुहल करने लगते थे और एक-दूसरे से ऐसे बात करते थे, मानो उनके बीच कुछ हुआ ही न हो। लेकिन जैसे ही पैनल कंट्रोल रूम से कार्यक्रम शुरू करने के लिए उलटी गिनती शुरू हो जाती थी, राजनीतिक दलों के प्रवक्ता या स्टूडियो में आए मेहमान ऑन रिकॉर्ड वाली अपनी भूमिकाओं के लिए ठीक उसी तरह अलर्ट मोड में आने लगते थे, जैसे किसी नाटक में पात्र पर्दा उठने के बाद अपनी भूमिकाओं के लिए तैयार होते हैं। 
लेकिन हाल के दिनों में ऐसी स्थिति नहीं रही। कुछ वर्षों में जिस तरह अपनी बहसों की ओर कार्यक्रमों के प्रोड्यूसरों, चैनलों के नीति-नियंताओं और एंकरों ने चीखमचिल्ली का रास्ता अख्तियार किया है, उससे टेलीविजन की बहसें मछली बाजार जैसी बनती गई हैं। रही-सही कसर कार्यक्रमों में शामिल किए जा रहे स्तरहीन लोगों की भाषा ने पूरी कर दी है। टेलीविजन के नियंता मान चुके हैं कि दर्शकों के समर्थन की बड़ी रेटिंग इसी तरीके से मिल सकती है, लिहाजा चीख, चिल्लाहट का जोर बढ़ा है। इन दिनों समाचार टेलीविजन चैनलों के नियंताओं ने अपनी बहसों के लिए फॉर्मूला ही बना लिया है। मसलन जब दो समुदायों से संबंधित कोई मसला हो, तो एक तरफ से वे मुस्लिम उलेमा बैठाते हैं तो दूसरी तरफ से हिंदू पुजारी या पंडित। इसके लिए उन्होंने फॉर्मूला बना दिया है। उलेमा का मतलब बड़ी दाढ़ी, आंखों में सुरमा और पंडित-पुजारी के लिए गेरूआ वस्त्रधारी ललाट पर बड़ा टीका और दाढ़ीधारी सज्जन। दोनों ही समुदायों के कथित प्रतिनिधि जितना ज्यादा भयानक लगेंगे, टेलीविजन के नियंता मानते हैं कि उनका टेलीविजन स्क्रीन उतना ही आकर्षक लगेगा। चूंकि ऐसी बहसों और गेटअप में आने के लिए अब दोनों तरफ के गंभीर लोग बचने लगे हैं तो जानकारीहीन लोगों की पौ बारह हो गई है। अब बहसों में राजनीतिक दलों के उन प्रवक्ताओं को ही तरजीह दी जाने लगी है, जो आक्रामक ढंग से अपनी बात रखें। भले ही उनके तर्क गलत हों। तर्कशील और गंभीर बात करने वाले, स्वर में ठहराव वाले नेता अब टेलीविजन बहसों के लिए आकर्षक नहीं रह गए हैं। अगर कभी ऐसे नेता, विशेषज्ञ या जानकार बुला लिए जाते हैं और गुरू-गंभीर आवाज में तार्किक ढंग से अपनी बात रखने लगते हैं तो उन्हें पीछे से टेलीविजन चैनल के मेहमान संयोजक की तरफ से सुझाव आने लगता है, सर जरा तेज बोलिए...जरा चीखिए...जरा चिल्लाइए...ऐसे माहौल में जो लोग अपना रक्तचाप बढ़ाना नहीं चाहते, वे टेलीविजन की बहसों से बचने लगे हैं। 
हिंदी समाचार चैनलों की कथित बहसों पर निगाह डालिए, यहां भी कुछ ऐसी ही स्थिति आपको नजर आएगी। टेलीविजन की इन कथित बहसों पर जब भी अपनी निगाह जाती है, गांवों में कुत्ते के बच्चों के साथ ग्रामीण बच्चों की ठिठोली याद आ जाती है। गांव के कुछ किशोरवय बच्चे आनंद के लिए कुत्ते के दो बच्चों को गर्दन से पकड़ कर उनके थूथन से थूथन को जबरदस्ती भिड़ाते हैं..यह भिड़ाना तब तक नहीं थमता...जब तक आजिज आकर कुत्ते के दोनों बच्चे आपस में लड़ने न लगें...इसके बाद तालियां बजने लगती हैं और उपस्थित बाल समुदाय इस लड़ाई का आनंद उठाने लगता है। यह आनंद उठाने की टेलीविजन स्टूडियो तक पहुंची प्रवृत्ति का ही कमाल है कि कुछ चैनलों पर ऑन एयर मारपीट हो चुकी है। कुछ साल पहले एक चैनल में एक कथित उलेमा ने एक महिला से अभद्रता की थी तो एक चैनल के कार्यक्रम में एक राजनीतिक प्रवक्ता ने अपने विरोधी पर गिलास का पानी फेंक दिया था।
याद आती है 2006 की जी न्यूज की एक बहस। उन दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने महिलाओं के लिए कोई कानून बनाया था। उस पर रात के कार्यक्रम में बहस होनी थी। उस कार्यक्रम में भारतीय जनता पार्टी का पक्ष रखने उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस अधिकारी और तब भाजपा के राज्यसभा सदस्य वीपी सिंघल आए थे। उन्होंने जैसे ही अपने सामने भोपाल से बहस के लिए उन दिनों मशहूर हुए पटना के प्रोफेसर और लव गुरू मटुकनाथ को देखा तो हत्थे से उखड़ गए। उन्होंने साफ शब्दों में जी के प्रोड्यूसरों से कहा था कि मेरा स्तर उस प्रोफेसर से बहस करने का नहीं है। दुर्भाग्यवश अब ऐसी हिम्मत भी राजनेता या जानकार कम दिखा पाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अब अवधारणाओं का खेल बढ़ गया है। कोई भी राजनीतिक दल अपनी छवि कमजोर होते नहीं देख सकता। बदले माहौल में माना जाने लगा है कि अगर आप स्टूडियो या बहस छोड़कर भागते हैं तो इसका मतलब आप कमजोर हैं। न्यूज मेकर समझते हैं कि इससे उनका युवा मतदाता निराश होता है। उन्हें भी महसूस होता है कि अगर वे चीखते-चिल्लाते हैं तो उनका युवा मतदाता खुश होता है। इसलिए वे टेलीविजन चैनलों के चीखमचिल्ली के खेल में कई बार इस वजह से भी न चाहते हुए शामिल होते हैं।
वैसे भी मौजूदा दौर में टेलीविजन नियंता हो गया है। उसका सामाजिक और अवधारणा बनाने का दबाव एवं देखते ही देखते स्टार बनाने की उसकी इतनी ताकत हो गई है कि चाहकर भी राजनीतिक दल इससे दूर नहीं हो पाते। टेलीविजन के पर्दे का आकर्षण इतना बड़ा है कि गंभीर व्यक्ति भी उसके सामने आने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। अपनी ताकत और राजनीतिक दलों-जानकारों की मजबूरी का फायदा टेलीविजन चैनल उठा रहे हैं। यह दबाव का अर्थशास्त्र ही है कि रिपब्लिक चैनल के अर्णव गोस्वामी अपने कार्यक्रम ‘पूछता हैभारत’ में ना सिर्फ चिल्लाते हैं, बल्कि कार्यक्रम में शामिल राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं और नेताओं को उकसाते भी हैं। हालांकि उनका यह कृत्य देखकर कई बार डर भी लगता है कि राजनेताओं का जो होगा, सो होगा...उनका ही रक्तचाप कहीं अपशगुनी स्तर तक न बढ़ जाए। 
भारतीय समाचार टेलीविजन चैनलों के विकास के दौर में दरअसल जो हस्तियां जिम्मेदार पदों पर रहीं, उनमें से ज्यादातर को बौद्धिकता से लेना-देना कम रहा। उन्हें मुद्दों से ज्यादा नौटंकी शैली में ही अपना विकास दिखा। चूंकि टेलीविजन चाक्षुष माध्यम है, लिहाजा उन्होंने उस दौर के हिंदी सिनेमा से प्रेरणा ली। जिसकी सफलता का राज ग्लैमर और मसाला रहा। रचनात्मक जन माध्यम के तौर पर विकसित करने में भी उनकी दिलचस्पी कम रही। इसीलिए टेलीविजन मसाला फिल्मों की तरह बढ़ता गया और उसकी बहसें चीखमचिल्ली के भयावह स्तर तक पहुंचती गई।
राजीव त्यागी के निधन के बहाने अव्वल तो होना चाहिए था कि राजनीति, टेलीविजन जगत की हस्तियां और जानकार ऐसे फॉर्मूले की तरफ बढ़ने की कोशिश करते, जहां हंगामे से ज्यादा मुद्दों पर जोर रहता। लेकिन दुर्भाग्यवश अभी ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है। 
 

वेब सीरीज - अश्लीलता और फूहड़पन परोसने की आजादी

सिनेमा अब बड़े पर्दे से एकाएक छोटे प्लेटफॉर्म पर आ रहा है, जिसे वेब सीरीज का नाम दिया गया है। इन वेब सीरीज को बनाने में बजट भी कम लगता है और वेब सीरीज निर्माता जो परोसना चाहता है, उस पर भी ज्यादा रोक-टोक देखने को नहीं मिल रही है। 
जिस तरह एक साल में एकाएक वेब सीरीज की बाढ़ आई है, उसमें अश्लीलता और फूहड़पन भी बड़े स्तर पर दर्शकों को परोसा जा रहा है और जिस पर केंद्र सरकार और सेंसर बोर्ड का कोई कानूनी नियंत्रण नहीं है। मनोरंजन के नाम पर भारत के ग्रामीण परिप्रेक्ष्य को भी वेब सीरीज के माध्यम से बदनाम किया जा रहा है। कई वेब सीरीज में देश के गांव-देहात के बारे में काल्पनिक कहानियां परोसी जा रही है। इसके अलावा वेब सीरीज के प्लेटफॉर्म के तौर पर एप्स की भरमार आई है, जिस पर ये अश्लील वेब सीरीज बड़ी आसानी से उपलब्ध हो रही हैं। 
कोरोना काल के लॉकडाउन में मनोरंजन के प्लेटफॉर्म के तौर पर ओटीटी का चलन बढ़ा है। पिछले कुछ साल से भारत में सक्रिय विदेशी ओटीटी प्लेटफॉर्म ऑरिजिनल सीरीज लाकर भारतीय हिंदी दर्शकों के बीच पैठ बनाने की कोशिश में जुटा है। वहीं, नेटफ्लिक्स, अलट बालाजी, उल्लू, मैक्स प्लेयर, एमेजोन प्राइम एप्स पर कई वेब सीरीज रिलीज हुई हैं। जिसमें कुछ एक वेब सीरीज को छोड़कर अधिकतर में अश्लीलता ही परोसी गई है। इन पर केंद्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का कोई नियंत्रण नहीं है, न ही सेंसर बोर्ड कोई कार्रवाई करने की दिशा में पहल कर रहा है। सिर्फ अलट बालाजी पर सेना के अधिकारी से संबंधित एक वेब सीरीज में अश्लीलता परोसने का मामला मीडिया और सोशल मीडिया पर उछला था, जिसके बाद एकता कपूर ने माफी मांगी। इसके अलावा किसी वेब सीरीज पर अभी तक कोई ठोस कार्रवाई अमल में नहीं लाई गई है। न ही अश्लीलता से भरी वेब सीरीज बनाने वालों पर  रोक लगाने की दिशा में कोई पहल हुई। वर्तमान युवा वर्ग से लेकर हर कोई वेब सीरीज में दिखाई जाने वाले गाली-गलौज और अश्लीलता की गिरफ्त में आ चुके हैं। 
कई बु‌द्घिजीवी अब वेब सीरीज पर अंकुश लगाने की जरूर मांग उठा रहे हैं। सभी जानते हैं कि फिल्मों के लिए सीबीएफसी (सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन)है जिसे प्रचलित धारणा में सेंसर बोर्ड माना जाता है। वास्तव में सीबीएफसी का काम फिल्मों को सेंसर करना नहीं है। वह एक ऐसी संस्था है, जो फिल्में देखकर सर्टिफिकेशन देती है कि कौन-सी फिल्म किस कैटेगरी (ए,यूए या यू)की है। कुछ निर्माता चाहते हैं कि उनकी फिल्में ए से यूए या यूए से यू की कैटेगरी में आ जाएं। फिर बोर्ड के सदस्य उन्हें सुझाव देते हैं कि फलां-फलां सीन और संवाद कम कर दीजिए या काट दीजिए, लेकिन वेब सीरीज की बाढ़ का रोकने और उसमें परोसी जा रही अश्लीलता को कम करने के लिए कोई ठोस कदम अगर केंद्र सरकार नहीं उठाएगी, तो आने वाले समय में स्थिति खतरनाक हो सकती है। वहीं, आपराधिक घटनाओं पर आधारित वेब सीरीज भी समाज को दूषित करने में अहम भूमिका निभा रही है। वेब सीरीज को लॉच करने के लिए कई एप्स प्ले स्टोर में उपलब्ध हैं, जिसे आसानी से डाउनलोड किया जा सकता है। इन एप्स पर नियंत्रण करने में केंद्र सरकार के किसी तंत्र की कोई भूमिका अभी तक नजर नहीं आ रही है। वेब सीरीज के प्लेटफॉर्म में कोई भी आसानी से सब्सक्राइब कर सकता है। पेड वेब सीरीज को देखने के लिए युवा धड़ल्ले से सब्सक्राइब कर एप्स पर इन फिल्मों को देख रहे हैं। 
 

पाकिस्तानः धारावाहिक के भरोसे इतिहास


वास्तविकता से अधिक महत्वपूर्ण वास्तविकता की प्रस्तुति होती है। इस कार्य को मीडिया सबसे अच्छे ढंग से करती है। सूचना के युग में सामान्य जन की सामूहिक समझ लगभग सभी विषयों पर मीडिया द्वारा दी गयी सूचना पर आधारित होती है। मीडिया की भूमिका तब और बड़ी हो जाती है, जब कोई देश आत्म-विस्मृति का शिकार हो जाए और पहचान के संकट से गुजर रहा हो।

पाकिस्तान इसी प्रकार के रोग से ग्रस्त है। किसी भी देश के लिए अपनी सभ्यता की जड़ों को खोजना स्वाभाविक है, विशेषकर वे देश जो सैकड़ों वर्षों तक परतंत्र रहे हों। वे औपनिवेशिक शासन से प्रताड़ित थे, लेकिन पाकिस्तान अपनी जड़ें अपनी सभ्यता में न खोजकर, उस जमीन और चिंतन में खोजना चाहता है, जो उसका हिस्सा ही नहीं रहे।    

जब करोना का प्रकोप बढ़ा तो भारत में रामायण और महाभारत धारावाहिक का पुनःप्रसारण दूरदर्शन पर प्रारम्भ हुआ। इसी समय पाकिस्तान में भी राष्ट्रीय टीवी पर डिरिलिसः इर्तुग्रुल नाम से एक धारावाहिक का प्रसारण शुरू हुआ। मूलतः यह आटोमान साम्राज्य के स्थापना के पहले के इतिहास का चित्रण करता है। यद्यपि इसमें जेहाद और मध्यकाल में इस्लाम के गौरव को दर्शाया गया है, लेकिन यह इस्लाम की स्थापना या विस्तार के लिए नहीं लड़ा जा रहा है। इसमें संघर्ष को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है, मानो एक कबीले का सरदार अपना शासन तंत्र स्थापित करना चाहता है। पाकिस्तान इस धारावाहिक को इस्लाम के पराक्रम के रूप में दिखाने की कोशिश कर रहा है।

पाकिस्तान ने रमजान महीने के पहले दिन से इसका प्रसारण उर्दू में शुरू किया। इस धारावाहिक को देखने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान के लोगों से निवेदन किया था। खान ने कहा कि इससे पाकिस्तान के लोग इस्लाम के इतिहास, उसकी संस्कृति और नैतिकता को समझेंगे। अरब देश सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र ने इस पर रोक लगा रखी है। पाकिस्तान के प्रमुख समाचार पत्र ‘द डॉन’ के अनुसार सऊदी अरब 40 मिलियन डॉलर का एक “मलिक ए नूर” नामक धारावाहिक का निर्माण इसके समांतर कर रहा है। जिसका अर्थ है कि अरब तुर्की के साम्राज्यवाद को सहन नहीं कर सकता है।

पहचान का संकट

पाकिस्तान की समस्या यह है कि वह ‘पहचान के संकट’ से गुजर रहा है । पाकिस्तान 1947 ई. से पहले भारत था और इसकी उत्पत्ति सम्प्रदाय के आधार पर भारत के विभाजन से हुई है। उसके सामने यह द्वंद है कि वह अपनी जड़ें सिंधुघाटी सभ्यता, तक्षशिला और शारदा पीठ में देखें या इस वास्तविकता को नकार दें।

पहले वह इस्लाम के नाम पर अरब देशों के निकट गया। काफी समय तक सऊदी अरब से घनिष्ठता रही है। वर्तमान भारत का संबंध अरब देशों से मित्रवत है । प्रधानमंत्री मोदी ने ’लिंक वेस्ट एशिया’ के राजनयिक माध्यम से खाड़ी देशों के संबंधों में प्रगाढ़ता स्थापित की । पिछले 6 वर्षों में प्रधानमंत्री ने यूएई की तीन बार, सऊदी अरब की दो बार तथा बहरीन, कतर और ओमान की एक बार यात्रा की । आतंकवाद के खिलाफ साझे युद्ध, सुरक्षा, ऊर्जा, विज्ञान, समुद्री सुरक्षा जैसी द्विपक्षीय व बहुपक्षीय समझौते किये गए। परिणाम यह हुआ कि 2016 में सऊदी अरब ने मोदी को अपना सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भी दिया था। बहरीन का भी तीसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ‘किंग हमद आर्डर ऑफ रेनशा’ प्रधानमंत्री मोदी को दिया। जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 के हटाने के बाद पाकिस्तान को वहाँ पर कोई समर्थन नहीं मिला। इसलिए पाकिस्तान इस समय तुर्की के निकट जाना चाह रहा है। अनुच्छेद 370 के विषय पर तुर्की ने पाकिस्तान का समर्थन किया था। अब पाकिस्तान स्वयं को तुर्क और ऑटोमन साम्राज्य से जोड़ने की कोशिश में है।

पाकिस्तान भारत को हिन्दू देश मानता है । भारत के इतिहास से अलग करते हुए पाकिस्तान अपनेआप को केवल भारत के इस्लामिक शासन से जोड़ता है। अपनी पहचान की खोज में वह इस्लाम को अपनाता है। इसका एक उदाहरण पाकिस्तान की सुरक्षा नीति है। यद्यपि युद्ध का फैसला सैन्य क्षमता और कुशल रणनीति पर निर्भर करता है, फिर पाकिस्तान की सोच समझने के लिए यह आवश्यक है। पाकिस्तान के प्रक्षेपास्त्रों का नाम गजनी, गौरी, अब्दाली और बाबर है। वह मोहमद बिन कासिम को अपना नायक मानता है। ये वही लोग हैं जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया, भारत को लूटा और यहां के नागरिकों पर अत्याचार किया। उस समय पाकिस्तान भारत ही था । अरबों ने सिंध पर आक्रमण किया था, पाकिस्तान पर नहीं। सिंध भारत था। सारांश यह कि पाकिस्तान अपने सभ्यता के आधार को नकारने लगा। सिंधु घाटी की सभ्यता में उसकी जड़ें हैं, इस सत्य़ से वह नजरें चुराने की कोशिश में है।

पाकिस्तान में पंजाब प्रांत की जनसंख्या सबसे अधिक है। पंजाब के लोग ही सरकार में प्रभुत्व रखते हैं। सेना, राजनीति और उद्योग में भी पंजाब के लोग ही बहुमत में है । यह वर्ग नीति-निर्धारक है। अहमद शाह अब्ब्दाली ने सबसे अधिक हत्या, बलात्कार और लूट-पाट पंजाब में ही किया। सबसे अधिक क्षति अब्दाली ने पंजाब प्रांत को ही पहुंचाई। पंजाब में एक कहावत थी कि सब खाकर-पीकर समाप्त कर दो, नहीं तो जो बचेगा उसे अब्दाली ले जाएगा, लेकिन भारत-विरोध के अंधेपन के चलते अब्दाली पाकिस्तान का हीरो है ।

पाकिस्तान की मांग करने वाले और पाकिस्तान का शुरुआती नेतृत्व करने वाले लगभग सभी लोग उस भूभाग से थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बना। वें स्वयं ही पाकिस्तान में शरणार्थी हो गए और मुहाजिर कहलाए। भारत के प्रति उपजा असुरक्षा का भाव उसकी सैन्य नीति का निर्धारक तत्व बन गयी। भारत केन्द्रित असुरक्षा की अवधारणा की प्रबलता से पाकिस्तान में सैन्य संस्था का प्रमुख स्थान बन गया। यही सोच और समझ पाकिस्तान के प्रति सुरक्षा नीति के लिए उत्तरदायी है। सेना ने राजनीतिक संस्थाओं का इस्लामीकरण कर दिया। इस्लामिक पहचान की स्थापना और इस्लाम का वैश्विक नेतृत्व पाकिस्तान विदेश नीति का आधार बना। राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से सेना सबसे शक्तिशाली संस्था बन गई। इस प्रकार से इस्लाम और सैन्य व्यवस्था पाकिस्तान की पहचान हो गयी। शीतयुद्ध के समय में अमेरिका से गठबंधन और बाद में चीन के साथ गठबंधन उसके संकट की पहचान करने की क्षमता का परिचायक है। वर्तमान समय में पाकिस्तान की सुरक्षा, स्थिरता और संपन्नता चीन के हाथों में चली गयी है।

अब जब जम्मू और कश्मीर के पुनर्गठन के बाद पाकिस्तान को अरब देशों से आपेक्षित समर्थन नहीं मिल रहा, तो वह इस्लाम के तुर्की संस्करण से अपनी पहचान जोड़ रहा है। पाकिस्तान का मानना है कि तुर्कों ने भारत पर 600 वर्षों तक शासन किया है। यह विजेता का मनोविज्ञान है । तुर्क के साथ जुड़कर वह भारत को हीन दिखाना चाहता है। वास्तविकता यह है कि इर्तुग्रुल के जरिए उसने अपनी पहचान के संकट को विश्व पटल पर लाकर रख दिया है। सिंध में राजा दाहिर को स्थानीय नागरिकों द्वारा अपना पूर्वज मानने के लिए चलाया जा रहा अभियान हो, या बलूचिस्तान में बलूच पहचान के लिए किया जाने वाला संघर्ष, या फिर इर्तुग्रुल का प्रसारण, सभी यही बताते हैं कि अपनी पहचान को लेकर पाकिस्तान ने जो झूठ गढ़ा था, अब वह दरक रहा है। भारतीय मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान पाकिस्तान में बढ़ रहे पहचान के संकट पर क्या दृष्टिकोण अपनाएंगे, इस पर सभी की नजर रहेगी। 

सच्चाई की मीडिया-लिंचिंग

भारतीय मीडिया में यकायक सम्प्रदाय सबसे बड़ा ‘समाचार-मूल्य’ बन गया है। समाचार के चयन और महत्व का निर्धारण धड़ल्ले से साम्प्रदायिक आधार पर हो रहा है। किसी एक सम्प्रदाय से जुड़ी घटना मानवता का मुद्दा बन जाती है, सच की लड़ाई बन जाती है, अत्याचार की कहानी बन जाती है। लेकिन  किसी अन्य सम्प्रदाय से जुड़ी वैसी ही घटना खबर बनने के लिए तरस जाती है, मीडिया भयानक चुप्पी साध लेता है।

अपराधी को कानून के कठघरे में लाए बिना यदि भीड़ न्याय करने में उतारू हो जाए तो मॉब लिंचिग होती है। यदि सच का सुविधा और स्वार्थ के अनुसार किया चुनाव किया जाने लगे तो मीडिया लिंचिंग हो जाती है। एक में व्यक्ति की मौत होती है, दूसरे में सच दम तोड़ता है। हाल ही में जब पालघर में दो साधुओं की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई या असम में सब्जी बेचने वाले सनातन डेका मॉब लिचिंग का शिकार बने तो उनकी पहचान के साथ जिस तरह से खिलवाड़ किया गया, उससे मीडिया की साम्प्रदायिक आधार पर कवरेज करने का प्रश्न फिर से चर्चा का विषय बना। पालघर में तो साधुओं को मीडिया ने शुरुआती दौर में चोर बता दिया।

यदि पीछे भी नजर डालें तो इतिहास की सर्वाधिक अमानवीय, क्रूर और वीभत्स मॉब लिंचिंग की घटना मधु चिंदक्की की हत्या को माना जा सकता है। 22 फरवरी 2018 को जनजातीय समाज से ताल्लुक रखने वाले मधु चिंदक्की की हत्या कुछ मुट्ठी चावल चुराने के आरोप में कर दी गई थी। 27 वर्षीय मधु को बांधकर भीड़ ने इतनी बुरी तरह पीटा कि अस्पताल जाते समय उनकी मौत हो गई। अमानवीयता की हद यह थी कि कुछ लोग पिटाई के दौरान मानसिक रूप से विकलांग मधु के साथ सेल्फी ले रहे थे। मॉब लिंचिंग की इस घटना को एक समुदाय विशेष के द्वारा अंजाम दिया गया था। चार्जशीट के अनुसार एम. हुसैन, पी.सम्सुद्दीन, वी. नजीब, के सिद्दीक, और पी. अबूबकर मुख्य अभियुक्तों की सूची में शामिल हैं। मीडिया में मॉब लिंचिग के दौर पंथ और सम्प्रदाय ढूंढने की जो व्यग्रता रहती है, वह भीड़ द्वारा मधु चिंदक्की की हत्या मामले से पूरी तरह गायब है।

18 मई 2019को मथुरा के चौक बाजार में दुकानदार भारत यादव की एक भीड़ पीट-पीटकर हत्या कर देती है। उनका गुनाह केवल इतना था कि उन्होंने अपनी दुकान पर लस्सी पीने वाले कुछ लोगों से उसकी कीमत मांग ली थी। भारत यादव की उम्र 26 वर्ष थी। भारत यादव के भाई पंकज यादव हनीफ और शाहरुख को इस घटना के लिए दोषी ठहराते हैं। उनके अनुसार एक बुर्के वाली औरत ने भी भीड़ को उकसाया। पंकज के अनुसार भीड़ उनके भाई को काफिर कह-कह कर पीट रही थी। इस घटना पर मीडिया ने आपराधिक मौन धारण कर लिया। हिन्दी के अखबारों में तो यह इस घटना की थोड़ी बहुत कवरेज हुई भी। अंग्रेजी अखबारो से यह खबर लगभग पूरी तरह से गायब रही। इक्का-दुक्का अखबारों ने कवर किया भी तो वह बताने से अधिक छिपाने के अंदाज में किया।

11 मई 2019 को दिल्ली के बसई दारापुर में ध्रुव त्यागी के ऊपर इसलिए पत्थर बरसाए गए, पीटा गया और अंततः चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी क्योंकि क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों के सामने अपनी बेटी के साथ हो रही छेड़खानी का विरोध किया था। इस घटना में अपने पिता को बचाने आया अनमोल त्यागी भी बुरी तरह जख्मी हो गया।

इन तीन मामलों को मीडिया के पूर्वाग्रह और साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को समझने के लिए केस स्टडी के रूप में लिया जा सकता है। इन सभी मामलों में मीडिया ने समुदाय का नाम नहीं लिया। इन्हें कानून और व्यवस्था का मामला माना। और ‘कथित’ शब्द का इस हद तक प्रयोग किया गया कि घटना की वास्तविकता के बारे में संदेह पैदा होने लगे।

तर्क यह दिया जा सकता है कि मीडिया नैतिकता के लिहाज से यह ठीक है। हां, इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। लेकिन जब तस्वीर का दूसरा पहलू देखते हैं कि तो आसानी से यह समझ में आ जाता है कि मामला इतना सीधा नहीं है। यदि आज एक सामान्य आदमी मीडिया लिंचिंग के मामलों को रिकॉल करने की कोशिश करता है तो उसे तीन घटनाएं याद आती है मोहम्मद अखलाक, पहलू खान और तबरेज अंसारी। आप दिमाग पर जोर देंगे तो यह तथ्य भी उभरेगी कि इन तीनों मामलों की छवि इस कदर आपके दिमाग में गढ़ी गई है मानो यह कानून व्यवस्था का मसला न हो। एक हिंसक, क्रूर और बहुसंख्यक समुदाय का एक अल्पसंख्यक और समुदाय पर किया गया हमला है।

इसका कारण बहुत स्पष्ट है मीडिया में इन घटनाओं की कवरेज कानून-व्यवस्था के प्रश्न के रूप में नहीं हुई। बल्कि एक बर्बर और बलवान समुदाय द्वारा शांतिप्रिय और निर्बल समुदाय पर हमले के रूप में की गई। इन हत्याओं का उपयोग राजनीतिक और सभ्यतागत आख्यान गढ़ने के लिए या उन्हें मजबूत बनाने के लिए किया गया। भारतीय मीडिया के लिए हिंदुओं पर हुए हमले व्यक्तिगत हो जाते हैं, कानून-व्यवस्था का प्रश्न बन जाते हैं, शांति-अपील के फुटनोट उनके साथ नत्थी कर दिए जाते हैं। मुसलमानों पर होने वाले हमले सामुदायिक हो जाते हैं, साम्प्रदायिक हो जाते हैं और उसमें आक्रोश को हवा-पानी दिया जाता है।

इससे भी आगे जाने वाला पूर्वाग्रह यह है कि मीडिया एक समुदाय के आरोपों को बिना छान-बीन के ही अंतिम मान ले रहा है और उन्हें प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। गुरुग्राम में एक व्यक्ति ने यह आरोप लगाए कि दूसरे लोगों ने पीटा, टोपी उतरवायी, जय श्रीराम के नारे लगवाए। मीडिया ने इस खबर को हाथोंहाथ लिया। हैदराबाद से भी जबरन जय श्रीराम के नारे लगवाने की खबर आई, खबर पूरी तरह फर्जी पाई गई। पश्चिम बंगाल में एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम से जयश्रीराम के नारे पर लगवा रहा था। पेश ऐसे किया गया मानो हिन्दू मुसलमानों से जय श्रीराम के नारे लगवा रहे हों।

दूसरी तरफ हिन्दुओं से जुड़ी हुई पुख्ता खबरों को भी या तो कवर नहीं किया जाता है या शीर्षक में सम्बोधन लगाकर उन्हें संदेहास्पद बना दिया जाता है। केरल में महिला पुलिस कर्मी को दूसरे समुदाय के पुलिसकर्मी ने जिंदा जला दिया। कुछ अखबारों ने शीर्षक में इसे मानसिक असंतुलन से जोड़कर प्रस्तुत किया। दिल्ली में एक दुकान पर समुदाय विशेष के अपराधी ने तोड़-फोड़ किया, इस घटना को ऐसे पेश किया गया मानो दिल्लीवासी ने किसी मुंबईवासी से पर हमला कर दिया हो।

इस नई प्रवृत्ति के कारण भारतीय मीडिया की रही-सही विश्वसनीयता भी खत्म हो रही है। यह समाज में वैमनस्य और घृणा के नए बीज भी बो रही है। दिल्ली के चावड़ी बाजार के गली दुर्गा मन्दिर पर हुए हमले के तमाम कारणों में से एक कारण यह भी था कि वहां पर एक समुदाय विशेष के व्यक्ति की मॉब लिंचिंग का अफवाह उड़ी। एक समुदाय ने इस अफवाह का उपयोग मन्दिर पर हमला करने के लिए किया।

मॉब लिंचिग की झूठी और एकतरफा खबरें घृणा के व्यापार को आधार प्रदान कर रही है। मॉब लिंचिंग कानून व्यवस्था का प्रश्न है और इससे निपटा ही जाना चाहिए। लेकिन सच की जिस तरह से मीडिया लिंचिंग  की जा रही है, वह तो देश की सामूहिक चेतना के साथ खिलवाड़ है। उसे कैसे रोका जाए। सच के पक्ष में खड़े होकर, सच को मुखर करके ही ऐसा किया जा सकता है। मीडिया-लिंचिंग अभी शैशवास्था में है, यही इसके प्रतिकार का उचित समय है। अन्यथा झूठ का बाजार और अफवाहबाजी का तंत्र निर्णायक भूमिका में आ जाएंगे।

खतरे की घंटी है टिकटॉक की फैंटेसी

चाइनीज टिकटॉक ऐप खुद के अभिव्यक्ति का एक साधन होने का दावा करती रही है। हालांकि पिछले कई दिनों से यह अलग-अलग कारणों से विवादों में है। इसी क्रम में बहुत से बुद्धिजीवियों ने टिकटॉक को पूर्णता बंद करने की मांग की है। टिकटॉक को लेकर अब तक के अनुभव से देखें तो यह मांग बहुत हद तक उचित जान पड़ती है। टिकटॉक ने युवाओं को न केवल अनुत्पादक कार्यों में लगाया है, बल्कि युवा मस्तिष्क को हिंसात्मक विचारों से भरने का कार्य भी किया है। तकनीकी कंपनियों के धड़ल्लेदार मार्केटिंग तिकड़मों से अनजान युवा वर्ग को यह पता भी नहीं चल पाता कि कब वे पॉर्नोग्राफी जैसी अनैतिक दुर्गुणों का शिकार हो जाते हैं। टिकटॉक के विरोध में लिखने का यह अर्थ कभी भी नहीं कि हम मनोरंजन के ही खिलाफ हैं। टिकटॉक जैसे मंच मनोरंजन के नाम पर जिस अनैतिकता को बढ़ावा दे रहे हैंए उसे मनोरंजन कैसे मान लिया जाए। इसी बीच समाज के कुछ जागरूक नागरिकों ने टिकटॉक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, तो यह काफी हद तक सही प्रतीत होता है।

टिकटॉक पर विवादास्पद वीडियो पोस्ट करने पर राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने भी टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। उन्होंने ट्वीट करके आरोप लगाया कि मैं मजबूती के साथ टिकटॉक इंडिया को पूर्णतया प्रतिबंधित करने के पक्ष में हूं और इसके लिए वह भारत सरकार को भी लिखेंगी। यह न केवल आपत्तिजनक वीडियोज को बढ़ावा दे रहा है, बल्कि युवाओं को गैर-उत्पादक जीवन की ओर धकेल रहा है। यहां ये कुछ फोलाअर्ज के लिए जी रहे हैं और जब यही नंबर कम हो जाते हैं, तो मौत को भी गले लगा लेते हैं। हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब टिकटॉक को प्रतिबंधित करने की मांग उठी हो। नवंबर 2019 में हीना दरवेश ने मुंबई हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाई थी जिसमें कहा गया था कि यह ऐप अपराधों और मौतों का कारण बन रहा है। इसी बीच टिकटॉक पर पिछले साल मद्रास उच्च न्यायालय ले प्रतिबंध लगा दिया था, जिसे बाद में हटा लिया गया। 12 मार्च को अमेरिका में रिपब्लिकन सीनेटर जॉश हावले ने सीनेट में एक बिल पेश किया कि सभी फेडरल सरकारी उपकरणों पर चीनी सोशल मीडिया ऐप टिकटॉक को डाउनलोड व इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगाया जाए, क्योंकि यह अमेरिकी सरकार की डाटा सुरक्षा पर एक जोखिम हो सकता है। इस तरह से यह भारत और दुनिया के दूसरे कई देशों में बार-बार सवालों के घेरे में आता रहा है।

कुछ समय पहले महाभारत के भीष्म पितामह मुकेश खन्ना ने भी टिकटॉक को बेकार बताया था। उन्होंने इस पर अश्लीलता फैलाने का भी आरोप लगाया था। मुकेश खन्ना ने यह भी कहा कि इस ऐप के उपयोग कर युवा नियंत्रण से बाहर हो रहा है। इंस्टाग्राम अकाउंट पर अपने विचार साझा करते हुए उन्होंने कहा था।

टिक टॉक टिक टॉक घड़ी में सुनना सुहावना लगता है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी का घर मोहल्ले, सड़क-चैराहे पर चंद पलों का फेम पाने के लिए सुर-बेसुर में टिकटॉक करना बेहूदगी का पिटारा लगता है। कोरोना चायनीज वाइरस है। यह सब जान चुके हैं। पर टिकटॉक भी उसी बिरादरी का है, यह भी जानना जरूरी है। टिकटॉक फालतू लोगों का काम है। और यह उन्हें और भी फालतू बनाता चला जा रहा है। अश्लीलता, बेहूदगी, फूहड़ता घुसती चली जा रही है आज के युवाओं में इन बेकाबू बने वीडियोज के माध्यम से। इसका बंद होना जरूरी है। खुशी है मुझे कि इसे बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। मैं इस मुहिम के साथ हूं।

टिकटॉक एक बार तब भी सुर्खियों में था जब फैजल सिद्दीकी का टिकटॉक अकाउंट सस्पेंड कर दिया गया था। इसके बाद उनके भाई आमिर सिद्दीकी का टिकटॉक अकाउंट भी सस्पेंड कर दिया गया था। आमिर सिद्दीकी के टिकटॉक अकाउंट सस्पेंड होने के पीछे कास्टिंग डायरेक्टर नूर सिद्दीकी की याचिका भी बताई जा रहा है। अब उनका टिकटॉक अकाउंट सस्पेंड कर दिया गया है, जिसके 38 मिलियन यानी 38 लाख फॉलोअर्स हैं। आमिर ने यू-ट्यूब कम्युनिटी के खिलाफ एक वीडियो बनाया था, जिसके बाद से वो ज्यादा खबरों में थे। बता दें कि पहले टिकटॉक वर्सेस यू-ट्यूब का मामला आया। इसके बाद फैजल सिद्दीकी का वीडियो वायरल हुआ, जिस पर एसिड अटैक को बढ़ावा देने का आरोप लगा। इस आरोप के बाद सोशल मीडिया पर तमाम ऐसे वीडियो घूमने लगे जिन पर यौन हिंसा और जानवरों पर अत्याचार के आरोप लग रहे हैं।

इतनी आसानी से टिकटॉक के जाल में फंसने के पीछे एक बेहद सामान्य सा मनोविज्ञान कार्य कर रहा होता है। लंबे समय से बॉलीवुड ने युवाओं के मन में एक अजीबोगरीब  फैंटेसी पैदा कर रखी है कि उनका लाइफ स्टाइल आम आदमी की तुलना में खास होता है। इसलिए बॉलीवुड की इस फैंटेसी से प्रभावित बहुत से भारतीय खासकर युवा खुद को सेलिब्रिटी के तौर पर देखना चाहते हैं। टिकटॉक इनैक्टमेंट के दौरान टिकटॉकर खुद को अभिनेता या अभिनेत्री के रूप में देखने लगता है। हालांकि यह भी सच है कि हर कोई बच्चा अभिनेता और अभिनेत्री नहीं बनने वाले। फिर क्यों उन्हें समय और ऊर्जा की बर्बादी से नहीं रोका जा रहा

इन सब विवादों के बीच टिकटॉक ने एक पोस्ट किया है जिसमें उन्होंने कुछ स्पष्टीकरण दिया है, लेकिन इतने भर से बात बनने वाली नहीं। भारतीय समाज को अब समझना होगा कि अपने बहुमूल्य जीवन का अधिकतर समय टिकटॉक पर विडियोज बनाकर दूसरों का मनोरंजन करने के लिए आप लोग क्यों खुद को साधन बना रहे हैं? कायदे से तो माता-पिता को अपने बच्चों को ऐसे अनुत्पादक कामों में न उलझने से समझाना चाहिए, लेकिन बहुत से मां-बाप स्वयं बच्चों के साथ मिलकर वीडियोज बना रहे हैं। ऐसे मां-बाप अपने बच्चों से क्या उम्मीद रख सकते हैं?

अगर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ बनाना चाहते हैं, तो उन्हें इन सब फूहड़ कार्यों से हटाकर रचनात्मक एवं उत्पादक कार्यों में लगाना होगा। इसमें बहुत से कार्य हो सकते हैं, जैसे समाजसेवा, स्वाध्याय, देशभक्ति और नैतिक मूल्यों से अवगत करवाना। हमारे मार्गदर्शक शास्त्र भी इसी बात पर बल देते हुए व्याख्या करते हैं। सद्भिरेव सहासीत सद्भिरकुर्वीत सङ्गतिम्।

 

मीडिया के मालिक सोचें, कैसे करना है पत्रकारिता का इस्तेमाल: कुलदीप चंद अग्निहोत्री

आज का मीडिया वह नहीं है, जो महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, सावरकर और आंबेडकर के दौर का था। अब तो मीडिया हाउस बन गए हैं और उनकी रुचि खबरें देने ज्यादा उसमें घालमेल पर है। यह दौर मीडिया के आत्मावलोकन का है। मीडिया की समीक्षा, शिक्षा, शोध जैसे विषयों पर केंद्रित वेबसाइट संवाद सेतु के लोकार्पण के मौके पर केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश के कुलपति कुलदीप चंद अग्निहोत्री ने यह बात कही। उन्होंने कहा कि मीडिया के दो हिस्से हैं, एक पत्रकार और दूसरा मालिक। किसी भी चैनल या वेबसाइट पर क्या जाना है, इसमें मालिकों का भी बड़ा दखल है, ऐसे में पत्रकारों से ज्यादा मीडिया के मालिकों को आत्मावलोकन करना चाहिए कि आखिर जो सामग्री उनके माध्यम से प्रकाशित हो रही है, वह कितनी सही है।
खूंखार आतंकी रियाज नाइकू के मारे जाने की रिपोर्टिंग पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने कहा कि कई मीडिया संस्थानों की ओर से उसे गणित का टीचर बताने और उसके आतंकी बनने की कहानियां बताई गईं। यह नहीं बताया गया कि वह कितना खूंखार आतंकी था। उन्होंने कहा कि यह रिपोर्टिंग बताती है कि मीडिया के वर्ग का उद्देश्य यह था कि उसके निगेटिव पक्षों को पब्लिक में न लाया जाए और उसकी मौत से आम लोगों में क्रोध पैदा हो। कुलदीप अग्निहोत्री ने कहा, 'मीडिया का एक वर्ग इस काम में लगा हुआ है कि जब कोई आतंकवादी मरता है तो उसे नायक का दर्जा दिया जाए। इसके निगेटिव पक्षों को पब्लिक में न लाया जाए और उसकी मौत से आम लोगों में क्रोध पैदा हो।' उन्होंने कहा कि ऐसा करने वालों में मुख्य रूप से विदेशी भाषा का मीडिया है। यह मीडिया सैनिकों के लिए तो शहीद नहीं लिखता है बल्कि ऐसे आतंकियों को ग्लोरिफाई किया जाता है। उन्होंने कहा कि मीडिया के दो हिस्से हैं, एक पत्रकार और दूसरा मालिक। इक्का-दुक्का पत्रकार ही ऐसा होगा, जो नाइकू के समर्थ में हो। असल में आत्मावलोकन तो मीडिया के मालिकों को करना होगा कि आखिर वे इस माध्यम का उपयोग किस दिशा में काम करना चाहते हैं।

कोरोना और तबलीग से जुड़ी रिपोर्टिंग पर उठाए सवाल

तबलीगी जमात के आयोजन से बढ़े कोरोना के मामलों की रिपोर्टिंग का भी जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस मीडिया के एक वर्ग ने बेहद चालाकी के साथ मुस्लिमों के खिलाफ कार्रवाई करने से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि यह कहीं से भी मुस्लिमों के खिलाफ कोई ऐक्शन नहीं था, लेकिन विदेशी भाषा ने बेहद चालाकी से ऐसा साबित करने की कोशिश की। आखिर एक संगठन के खिलाफ ऐक्शन किसी समुदाय के साथ कैसे जुड़ सकता है।

मीडिया को बहुजन हिताय की ओर ले जाएगा संवाद सेतु

केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति ने कहा कि यह बेहद सटीक समय है, जब मीडिया हाउस के मालिकों को आत्मावलोकन करना चाहिए। संकट की इस घड़ी में जब एक तरफ से कोरोना और दूसरी तरफ से आतंकवाद और नक्सलवाद का हमला हो रहा है, तब रिपोर्टिंग में ध्यान में रखना चाहिए। मीडिया हाउस के मालिक जो नहीं कर पा रहे हैं, उस काम को संवादसेतु को करना चाहिए। इससे भारत की युवा पीढ़ी भारतीय मीडिया के बारे में जान सकेगी। यह एक ऐसा प्रयास है, जो मीडिया को उसके ध्येय वाक्य- बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की ओर ले जा सके। ऑनलाइन माध्यम जूम पर हुए इस कार्यक्रम को संबोधित करते हुए संवादसेतु के संपादक आशुतोष भटनागर ने कहा कि हम 24 ऑनलाइन अंक अब तक प्रकाशित कर चुके हैं औऱ जल्दी ही मुद्रित माध्यम में भी संवादसेतु पत्रिका को लाने पर विचार किया जाएगा।

मीडिया के आत्मावलोकन का मंच है संवाद सेतु

संवाद सेतु से जुड़े जयप्रकाश सिंह ने कार्यक्रम की शुरुआत में कहा कि यह मंच मीडिया के आत्मावलोकन है। उन्होंने कहा कि भारतीय मीडिया के बारे में आत्मनियंत्रण की व्यवस्था है। शायद हम उसे भूल गए हैं, इसीलिए मीडिया की कार्यशैली पर सवाल उठते हैं। ऐसे में संवाद सेतु का यह मंच मीडिया के आत्मावलोकन का स्थान है। मीडिया संस्थानों, मीडिया शिक्षण, कला एवं साहित्य से जुड़े लोग संवाद सेतु के लिए योगदान दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि भविष्य में टीम का विस्तार करते हुए देश भर के मीडिया से जुड़े लोगों को साथ लाया जाएगा।

 

सांस्कृतिक परिचय का कोरोना-काल

होइहि सोइ जो राम रचि राखा।

कोई भी काल हो, कोई भी युग हो, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन अनादी काल तक जनमानस के लिए एक आदर्श के रूप में स्थापित रहेगा। युगों पूर्व महर्षि वाल्मीकि ने भगवान श्रीराम के जीवन की यात्रा का जो अमूल्य रत्न ‘रामायण’ विश्व को दिया, उसे रामानंद सागर जी ने पर्दे पर उतार कर जीवंत रूप दे दिया। रामानंद सागर जी ने जब पर्दे पर रामायण को उतारा था, तब उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि वह आमजन को एक बहुमूल्य रत्न देने जा रहे हैं। इतने वर्षों पश्चात् भी दूरदर्शन पर रामायण के पुनः प्रसारण की लोकप्रियता यह साबित करती है कि भारतीयों के मन से प्रभु श्रीराम को कोई हटा नहीं सकता। राम भारत के कण-कण में समाए हैं। गेम्स ऑफ थ्रोन्स देखने वाली आज की युवा पीढ़ी जब 'मंगल भवन अमंगल हारी' को सुन और गुनगुना रही है, तो समझा जा सकता है कि राम जैसा कोई नहीं है।
यह आश्चर्य ही है कि हम श्रीराम के जीवन को बचपन से सुनते आ रहे हैं। हम पूरी कहानी जानते हैं, लेकिन फिर भी जब पर्दे पर आज फिर से रामायण का प्रसारण होना शुरू हुआ तो हम उसी उत्साह और प्रेम से सब काम छोड़कर रामायण देखने में लग गए। हम भूल गए कि इस समय हम पर एक विषाणु का खतरा मंडरा रहा है. पर वो कहते हैं न राम से राम नाम बड़ा है, शायद उसी वजह से हम अपने पर आए दुःख-दर्द को भूल जाते हैं। उस दौर में और आज के दौर में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है। तब भी रामायण को देखने के लिए लोग सब काम छोड़ देते थे और आज भी लोग वैसा ही कर रहे हैं। उस समय भी कुछ लोगों को रामायण के प्रसारण से दिक्कत थी और इस जमाने में भी कुछ लोगों के पेट में यही दर्द उठ रहा है। लेकिन रामायण तब भी लोगों के हृदय में बसती थी और आज भी लोगों के हृदय में स्थान बना चुकी है। रामायण जिस दिन पुनः प्रसारित किया जाने लगा उस दिन कुछ क्रांतिकारी पत्रकारों ने हमेशा की तरह प्रश्न और विरोध के बाणों को धनुष पर चढ़ा लिया और पूछा कि इस दशकों पुराने धारावाहिक को कौन देखेगा? लेकिन रामायण ने बीते सालों के कई रिकॉर्ड ध्वस्त किए और कई नए कीर्तिमान भी स्थापित किए। रामायण आज दुनिया का सबसे अधिक देखा जाने वाला कार्यक्रम बन चुका है और आज की नई पीढ़ी के जीवन में उतर चुका है।
त्रेता युग में जन्मे भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान श्रीराम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं, भारत की अमूल्य सांस्कृतिक विरासत हैं। महात्मा गांधी के अनुसार राम एक सर्वव्यापी ईश्वरीय शक्ति का स्वरूप हैं। राम केवल हिन्दुओं के नहीं, अपितु सब धर्मों, पंथों के हैं। इसके बावजूद राम के देश में राम कब और कैसे काल्पनिक बनाए गए इसका अंदाजा शायद कोई हिन्दू नहीं लगा सकता। वर्षों का झूठ, प्रपंच और राम के जीवन पर ही प्रश्न चिन्ह लगाकर यह सारा षड्यंत्र भारत-विरोधी ताकतों द्वारा रचा गया है। इनका एकमात्र उद्देश्य भारत के लोगों को भारत के इतिहास से दूर करना है। ऐसा ही एक प्रपंच 2007 में कांग्रेस सरकार ने समुद्रम परियोजना पर काम करते हुए किया था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर करके कहा था कि राम, रामायण, सीता, हनुमान, वाल्मीकि आदि काल्पनिक किरदार हैं। अतः रामसेतु का कोई धार्मिक महत्व नहीं है। उसे तोड़ देना चाहिए। काफी विरोध झेलने के बाद सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा था, लेकिन लोग इस बात को याद रखे हुए थे। शायद इसीलिए जब रामायण दोबारा शुरू हुआ, तब सोशल मीडिया ने लिबरल्ज पर चुटकी लेते हुए लिखा की जिन-जिन को रामसेतु काल्पनिक लगता है, वे ध्यान से नल-नील को रामसेतु बनाते हुए देख लें।
आने वाली पीढ़ी को जानकर आश्चर्य होगा कि राम की ही भूमि भारत में राम जन्मभूमि तक विवादित विषय था। आप अन्य किसी पंथ, मजहब, धर्म के ईश्वर के जन्म या अस्तित्व को लेकर प्रश्न नहीं उठा सकते, लेकिन भारत में भारत के ही पूज्य श्रीराम की जन्मभूमि तक को भी विवादित बनाया गया। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। उच्चतम न्यायालय में कई सालों तक यह मुकदमा चला और न्यायालय में प्रभु श्रीराम के होने के प्रणाम भी प्रस्तुत किए गए। प्रभु श्रीराम के पूर्वज और वंशजों तक का इतिहास उच्चतम न्यायलय में पेश किया गया। आई सर्व के शोधकर्ताओं ने जब धार्मिक तिथियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चन्द्र कैलेंडर की तिथि को आधुनिक कैलेंडर की तारीख में बदला, तो वो यह जानकर हैरान हो गए कि सदियों से भारतवर्ष में रामलला का जन्मदिन बिलकुल सही तिथि पर मनाया जाता है। शोध संस्था के मुताबिक वाल्मीकि रामायण में जिक्र श्रीराम के जन्म के वक्त ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति सॉफ्टवेयर में मिलान करने पर जो दिन निकला वह था, चैत्र शुक्ल की नवमी जिसे हम राम नवमी के रूप में मनाते है। उच्चतम न्यायलय ने अपने फैसले में माना कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था। विवादित ढांचे की खुदाई के नीचे मंदिर के अवशेष मिलने के पश्चात् भी संदेह रहना और खम्भा तोड़ कर भगवान नरसिम्हा द्वारा प्रत्यक्ष दर्शन देने के बाद भी हिरण्यकश्यप का विश्वास न करना, यह दोनों कहानियां एक जैसी प्रतीत होती हैं। सच में इतिहास खुद को बार-बार दोहराता है।
कई वर्षों से हमारे सामने समाज को तोड़ने के लिए श्रीराम का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करने की कोशिश की गई जिसमें यह बताया गया कि राम और रामायण शुद्र विरोधी हैं। स्वयं को स्वयं ही ज्ञानी कहने वाले लिबरल्ज ने ना तो रामायण को अच्छे से पढ़ा और ना ही ध्यान से देखा या शायद राजनीति और समाज को तोड़ने में इतने खो गए कि जानबूझ कर हिन्दुओं में भेद पैदा करने के लिए तरह-तरह की बातों को गढ़ा गया। राम तो सबके हैं जाति, वर्ग, भेद से परे हैं। रामानंद सागर रामायण में बहुत अच्छे ढंग से श्रीराम के बाल्याकाल के मित्र निषाद राज से उनकी मित्रता का प्रसंग बताया गया है। वे दोनों साथ खाते हैं, खेलते हैं, एक ही गुरुकुल में पढ़ते हैं और राम के राज्याभिषेक के बाद उसी राजसभा में निषाद राज रहते हैं। ऐसे में आज तक श्रीराम के ऊपर शूद्रों से घृणा करने वाली भ्रामक बातें क्यों फैलाई गई होंगी। इससे उनका उद्देश्य साफ दिखता है, जामवंत, सुग्रीव, राक्षस राज विभिष्ण, जटायु, सम्पाती, शबरी राम के जीवन में प्रत्येक का आगमन हुआ, मित्रता हुई लेकिन श्रीराम ने एक बार भी मित्रता करने से पहले इनकी जाति नहीं पूछी। रावण ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बाद भी राक्षस कहलाया तो क्या उसका वध करने पर रामायण ब्राह्मण विरोधी हो गयी? फिर इतनी सारी भ्रामक बातें फैलाने का क्या उद्देश्य हो सकता है? लिबरल जमात के लिए वैसे तो रामायण एक काल्पनिक ग्रंथ है, लेकिन जैसे ही समाज तोड़ने की बात आती है, तो इनके लिए रामायण सच हो जाती है। रामायण की सुन्दरता छोड़कर अपने द्वारा रची गयी मनगढंत बातों पर विधवा-विलाप करने वालों पर रामानंद सागर द्वारा फिल्माई गई रामायण एक करारा जवाब है।

“कलयुग बैठा मार कुंडली जाऊं तो में कहां जाऊं, अब हर घर में रावण बैठा इतने राम कहां से लाऊं”

इस गीत की यह पंक्तियां आज के परिदृश्य में सही प्रतीत होती हैं। रावण को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना और इसके विपरीत श्रीराम की छवि धूमिल करने का प्रयास भी एक तबके द्वारा किया गया है। रावण शूर्पणखा के सम्मान के लिए नहीं, अपितु सीता मां की सुन्दरता का वृतांत सुनकर उन्हें हर लाया था। रावण को नलकुबेर का श्राप था कि वह किसी पराई स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध छू नहीं सकता। इसीलिए उसने सीता मां को केवल कैद में रखा था. यह रावण की मजबूरी थी, न कि महानता या मर्यादा। इसके विपरीत प्रभु श्रीराम आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। राम एक आदर्श पुत्र और भाई ही नहीं, अपितु आदर्श पति भी हैं। लेकिन तथाकथित फेमिनिस्टों को राम केवल पुरुष प्रधानता के प्रतीक लगते है। वो भूल जाते हैं कि राम जानकी अलग नहीं, अपितु एक ही हैं। वनवास राम को था, लेकिन उनके साथ जाने का फैसला सीता का था, लक्ष्मण रेखा को पार करना भी सीता की अपनी इच्छा थी। उन्होंने एक भूखे साधू को अपने द्वार पर देख अपनी सुरक्षा की परवाह नहीं की और भोजन करवाने के लिए बाहर चली आईं। हनुमान जब लंका आते हैं तो सीता मां को साथ चलने के लिए कहते हैं लेकिन इस पर सीता कहती हैं कि उनकी जानकारी श्रीराम को दें। वो आएंगे और दुष्ट का संहार करके मुझे यहां से लेकर जाएंगे। पुरुष प्रधान समाज में एक नारी अपने सभी फैसले अपनी इच्छा से लेती है। यह उस विषैली सोच को जवाब है, जिसे लगता है कि अगर विश्व में नारी पर अत्याचार हुआ है, तो भारत का इतिहास कैसे सही हो सकता है। परन्तु वे भूल जाते हैं कि भारत भूमि में नारी को सबसे ऊपर के स्थान में रखा जाता है। नारी को कितनी स्वतंत्रता थी, यह कैकेई द्वारा मांगे गए दो वरदान सब साबित कर देते हैं। ये कुछ बातें आज के आधुनिक युग से प्रश्न करती हैं कि क्या आज के समाज में इतनी समझ है? सीता द्वारा अग्निपरीक्षा का रहस्य भी वाल्मीकि रामायण में वर्णित है और रामानंद सागर जी ने भी इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि किस प्रकार सीता के छाया रूप के साथ प्रभु ने लीला रची और रावण वध के पश्चात अग्नि से अपनी सीता को वापिस प्राप्त किया।
प्रजा के कुछ लोगों द्वारा सीता मां पर सवाल उठाने का सारा वृतांत जब श्रीराम के पास पहुंचता है, उसके बाद भी वह सारी बात अपने तक रखते हैं लेकिन जब सारी बात सीता को स्वयं पता चलती है तो सीता अपनी इच्छा से आयोध्या का त्याग करती है। तब भी श्रीराम मां सीता के साथ चलने को कहते हैं, लेकिन सीता श्रीराम को प्रजा के लिए उनके दायित्व की याद दिलवाती हैं।
आज के दौर में क्या इस प्रकार का निःस्वार्थ प्रेम संभव है? खुद राजा दशरथ की तीन रानियां होने के बाद भी श्रीराम ने न केवल एक ही नारी से विवाह किया, अपितु पूरा जीवन उन्हीं से प्रेम करते हुए किसी पराई स्त्री की ओर नहीं देखा। ऐसा निर्मल चरित्र आज की भोग-विलास भरी दुनिया के लिए आदर्श भी है, लेकिन समाज किस दिशा में जा रहा है यह भी सोचने के लिए विवश करता है। शायद इसी वजह से आज के लिबरल्ज को सबसे ज्यादा नफरत किसी भगवान से है, तो वह हैं प्रभु श्रीराम। श्रीराम का पूरा जीवन संघर्षों से भरा पड़ा है। शायद इसीलिए राम मनोहर लोहिया भारत मां से शिव का मष्तिष्क, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म व वचन मांगते हैं। राम एक आम मनुष्य की भांति है कोई चमत्कार नहीं। एक आम इन्सान की तरह संघर्ष करते हुए पूरा जीवन, जिसमें अनेको मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसीलिए भारतीय समाज के लिए सबसे बड़े आदर्श का प्रतीक श्रीराम हैं। यही बात कुछ लोगों को पच नहीं पाती। राम का जीवन कष्टों का मार्ग है। इस पथ पर मर्यादा है। आप चाहकर भी सीमा नहीं लांघ सकते। यही चरित्र राम को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम बना देता है। राजा का कर्तव्य, शिष्य का कर्तव्य, माता-पिता के प्रति कर्तव्य, पत्नी के प्रति कर्तव्य एक आदर्श जीवन जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एक सभ्य समाज राम राज्य की गांधीजी द्वारा की गई कल्पना को अगर हम साकार करते हैं तो बहुत से लोगों के राजनीतिक राज्य खत्म हो जाएंगे।
सब सामने था, परन्तु फिर भी एक षड्यंत्र के तहत श्रीराम की छवि को भारत के आमजन के सामने धूमिल करने का प्रयास किया गया। रामानंद सागर जी ने जिस प्रकार रामायण को पर्दे पर उतारा, शायद आने बाली कई पीढ़ियां इससे ना केवल अपने आराध्य को जान पाएंगी, अपितु फिल्म जगत से जुड़े हुए लोग भी भावनाओं को कैसे पर्दे पर दिखाया जाता है, ये भी सीख पाएंगे। जिन लोगों के मन में रामायण को लेकर प्रश्न थे शायद रामायण के पुनः प्रसारण के बाद उन प्रश्नों के उत्तर उन्हें मिल गये होंगे। मुझे तो मिल गए और आपको?

 

जिहादी पब्लिक रिलेशन्ज

आतंकवाद की जड़ें सदियों पुरानी है, लेकिन उसका कलेवर बदलता रहता है। आज भी काम करने का मात्र तरीका बदला है, बाकी गैर-मुस्लिमों को मारने की परंपरा आज भी वही है, जो सैकडों वर्ष से चली आ रही है। मीडिया को आज के युग का सबसे बड़ा हथियार माना जाता है। इस बात को आतंकवादी संगठन भी भलीभांति जानते हैं। आतंकवादी संगठन मीडिया का भरपूर उपयोग कर आतंकी मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं।
मीडिया क्षेत्र में पब्लिक रिलेशन्ज अहम भूमिका निभाता है। पीआर का काम लक्षित व सौद्देश्यपूर्ण संबंध बनाना है, किसी व्यक्ति, वस्तु या संस्थान को प्रोमोट करना, लोगों को उसके बारे में अवगत करवाना है। पीआर किन्ही संगठनों और प्रमुख लोगों की छवि बनाने में महत्वपूर्ण कारक है।
आजकल यही काम जिहाद के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले भी दक्षता के साथ कर रहे हैं। अपनी बातों से लोगों को प्रभावित करना, आकर्षित करना पीआर की अनूठी कला है। इसी कला का प्रयोग अब आतंकवादियों द्वारा भी किया जा रहा है, पब्लिक रिलेशन्ज के माध्यम से आतंकवाद फैलाने के लिए इन लोगों ने पहले से ही अपनी टारगेटेड ऑडियंस तय करके रखी होती है। ये आतंकवादी संगठन अपना काम खुलेआम नहीं कर सकते। इनका कार्य तो लुका-छुपी करके ही पूर्ण होता है। खुफिया एजेंसियों के रडार पर आने का खतरा भी इनके सिर पर हमेशा मंडराया होता है। इनके पीआर की सबसे बड़ी कार्यनीति यह है कि ये लोग अपना कार्य मजहब की आड़ में छिपकर करते हैं। इसके द्वारा लोग इनके साथ एक जुड़ाव महसूस करते हैं और फिर लोगों को गलत राह पर धकेल देते हैं। ये लोगों का माइंडवॉश करने का काम करते हैं। आजकल के दौर में यही लोग मीडिया का सहारा लेकर लोगों के मन में जहर घोल रहे हैं।
आतंकी समूह पब्लिक रिलेशन्ज को मजबूत बनाने के लिए कुछ खास तरीके, कुछ खास पद्धतियां अपनाते हैं, जिससे आम आदमी के मन में डर पैदा किया जा सके। जैसे कुछ भयावह चित्र दिखाना, कटे सिर, खून से सने चाकू-खंजर और छोटी-छोटी घटनाओं को इस तरीके से पेश करना कि लोगों में इनका खौफ बना रहे। ये सब इनकी मूल रणनीतियां हैं। ये आतंकवादी संगठन पीआर के माध्यम से लोगों में डर पैदा करते हैं और इनकी विचारधारा का अनुसरण करने वाले लोग इनसे जुड़ाव महसूस करते हैं। ये पीआर के लिए गलत तरीकांे का प्रयोग करते हैं जो सामान्य पब्लिक रिलेशन्ज एथिक्स के खिलाफ है।
खुुफिया एजेंसियों के रडार पर आने से बचने के लिए ये पब्लिक रिलेशन्ज के प्लेटफॉर्म भी बदलते रहते हैं। आजकल इंटरनेट के जमाने में कोई भी व्यक्ति अपना संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक कुछ सेकेंड में पहुंचा सकता है। कमोबेश आतंकवादी संगठन भी इसी का इस्तेमाल जिहाद के लिए कर रहे हैं, ताकि इनकी चर्चा सार्वजनिक हो। फेक अकाउंट बनाकर अपना काम करना, जैसे दाबिक और रूमियाह जैसी पीडीएफ वर्जन में पत्रिका निकालना ताकि लोगों में भी इनका खौफ बना रहे। फील्ड में आकर लोगों को प्रभावित करना इनकी शुरूआती रणनीति रही है। पहले संगठन स्थापित हो जाए, फिर ये लोग अपना कार्य धीरे-धीरे पूरा करते हैं।
आतंकवाद सभी देशों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। आतंकवादी संगठन, मीडिया विशेष रूप से इंटरनेट व विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग कर जिहाद फैलाने का काम कर रहे हैं। जिहादी पब्लिक रिलेशन्ज इस्लामिक प्रतीकों व शब्दों का उपयोग कर प्रोपेगेंडा फैलाने का काम करते हैं। यह काम एक रणनीति के तहत किया जाता है।
किसी भी चीज के बारे में जानने के लिए उस चीज के बारे में पढ़ना काफी आवश्यक है। हम अपनी राय तभी रख पाते हैं, जब हम उसके बारे में जानते हों। जिहादी पब्लिक रिलेशन्ज और इन आतंकवादी संगठनों की मानसिकता समझने के लिए दाबिक और रूमियाह के चार अंक ही काफी हैं। दाबिक और रूमियाह जैसी पत्रिकाओं द्वारा ही हम इनकी मानसिकता समझ सकते हैं। इनको वैचारिक रूप से नेस्तनाबूद किया जा सकता है।

कालनेमियों के कुचक्र में सबरीमाला

भगवान अयप्पा का सबरीमाला मंदिर केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से 175 किमी दूर सह्याद्रि पर्वत श्रंखला की पहाड़ियों पर स्थित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान अयप्पा का सम्बंध भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों से जोड़ा जाता है, इसलिए उन्हें हरिहरपुत्र भी कहा जाता है। यह दक्षिण भारत का एक प्रमुख तीर्थस्थल है।
ऐसी मान्यता है कि भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी एवं तपस्वी है। रजस्वला महिलाओं को मंदिर में आने से भगवान अयप्पा का ब्रह्मचर्य नष्ट हो सकता है। इसलिए 10 से 50 वर्ष तक की रजस्वला महिलाओं की मंदिर में प्रवेश प्रतिबंधित है। मंदिर में 10 से कम और 50 वर्ष से ज्यादा उम्र की महिलाओं को ही प्रवेश की अनुमति है। इस 800 वर्ष पुरानी प्रथा को सुप्रीम कोर्ट ने तोड़ते हुए किसी भी आयु की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी है।
सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर को एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सबरीमाला मंदिर में किसी भी आयु की महिलाओं के प्रवेश को अनुमति दी है। धार्मिक आस्थाएं श्रेष्ठ है या परंपराओं को तोड़ने वाला सर्वोच्च न्यायालय का आदेश, आस्थावान और कानूनविदों के बीच यह विमर्श का विषय हो सकता है। लेकिन केरल की साम्यवादी सरकार का इस मुद्दे पर रवैया और साम्यवादी कार्यकर्ताओं के मंदिर प्रवेश के उत्साह ने हिन्दू समाज के कान खड़े कर दिए। केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने कहा है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को किसी भी कीमत पर लागू करेगी। सरकार ने कहा कि सबरीमाला मंदिर धर्मनिरपेक्ष मंदिर है। क्या मंदिर भी धर्मनिरपेक्ष हो सकते हैं?
केरल सरकार ने 12 नवंबर 2018 को केरल उच्च न्यायालय में दाखिल हलफनामा में कहा है कि ‘सबरीमाला पर केवल हिन्दुओं का ही अधिकार नहीं है। किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए मुस्लिमों और ईसाइयों के साथ भी विमर्श किया जाना जरूरी है।’ दरअसल यह हिन्दूओं और हिन्दू संस्कृति के खिलाफ पिनरई सरकार का गहरा षड्îंत्र है। राज्य सरकार हिन्दू संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाजों को कुचल देना चाहती है। केरल उच्च न्यायलय ने मंदिर प्रबंधन के कामकाज में सरकार के दखल पर नाराजगी जताई है। कोर्ट ने केरल पुलिस द्वारा श्रद्धालुओं के नाम व पता दर्ज करने पर कहा कि लगता है, सरकार के इरादे कुछ और है। लेकिन एक बात निश्चित है कि आस्था को तर्क के आधार पर तय करने वाले इस फैसले ने बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं आहत हुई हैं।
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर कई सामाजिक संगठन और मीडियाकर्मी काफी सक्रिय है। हैदराबाद के मोजो टीवी की जर्नलिस्ट कविता जक्कल और रिहाना फातिमा मंदिर में घुसने का प्रयास किया। ये दोनों 250 पुलिसकर्मियों के साथ मंदिर में घुसने का प्रयास किए, परन्तु श्रद्धालुओं के विरोध के कारण वे मंदिर में घुसने में असफल रही। भूमाता ब्रिग्रेड की तृप्ति देसाई अपने पांच महिला साथियों के साथ मंदिर में प्रवेश की जिद कर रही थी। श्रद्धालु प्रदर्शनकारियों ने उन्हें कोच्चि हवाई अड्डे से बाहर नहीं निकलने दिया। अंततः तृप्ति देसाई को साथियों सहित एयरपोर्ट से ही वापस जाना पड़ा।
उन्होंने कहा कि वह सबरीमाला मंदिर फिर जल्द ही आएंगी। मंदिर में घुसने का प्रयास करने वाली ये महिलाएं न तो श्रद्धालु है और न ही सामाजिक कार्यकर्ता। मंदिर पहुंचने वाली अधिकांश महिलाओं में नास्तिक, हिन्दुत्व विरोधी, किस ऑफ लव मुहिम की नेता व सेकुलर महिलाएं थी। इसमें कुछ महिलाएं सोशल मीडिया पर भद्दी और अश्लील टिप्पणियां और पोस्ट कर चुकी थी। सबरीमाला की कोई भी श्रद्धालु महिला भक्त इस भीड़ का हिस्सा नहीं थी। ये सेकुलर महिलाएं हिन्दूओं की आस्था से खिलवाड़ कर रही है। मंदिर प्रशासन ने सभी मीडिया संस्थानों को पत्र लिखकर महिला पत्रकारों को रिपोर्टिंग के लिए न भेजने का अनुरोध किया है। इस मामले में मीडिया की अति सक्रियता उसकी पेशेवर भूमिका पर प्रश्न खड़ा करती है।